Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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३६ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति परिवार के सदस्यों के पारिवारिक सम्बन्ध अच्छे होते थे । परिवार का स्वामी वयोवद्ध सदस्य या पिता होता था। पिता की फीति का बहुत ध्यान रखा जाता था। कैकेयी जब वन में जाकर राम को लौटाने का यत्न करती है तब राम कहते है कि पिता जी ने जो बचन कहे थे उनकी पूर्ति मुझे, तुम्हें तथा भरत सभी को करना चाहिए। पिता की अपकीति जगत्त्रय में न फैले इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है ।' पिता के समान ही माता को भी सम्मान दिया जाता था। पिता दकारथ कैकेयी को वर देले समय जब द्विविधा में फंस जाते हैं तब रामचन्द्र जी उन्हें समझाते हुए कहते हैं कि पुत्र को वही कार्य करना चाहिए जिससे माता-पिता किंचित् भी शोक को प्राप्त न हो । माता-पिता को पवित्र करना अथवा शोक से उनकी रक्षा करना ही पुत्र का पुत्रत्व है।' भाई का भाई के प्रति अनूठे प्रेम का उदाहरण लक्ष्मण के चरित्र में मिलता है जो बिना ऊहापोह किये भाई के साथ चलने की तैयारी करते हुए कहते हैं-मुझे इस अनुचिल विचार करने से क्या प्रयोजन ? क्योंकि बड़े भाई राम तथा पिता ही यह कार्य उचित है अथवा अनुचित, यह अच्छी तरह जानते हैं। अतः मैं उत्तम कार्य करने वाले भाई के साथ ज्ञाता हूँ। कहीं-कहीं पर अहंकारवश अथवा स्वार्थवश इसके अपवाद भी मिल जाते हैं जैसे-भरत तथा बाहुबलि का युद्ध । ऐसे समय हम दोनों एक ही पिता के पुत्र है ऐसा मानकर दो भाई विरुद्ध भी हो जाते थे।"
पस्नी पति को ही सब कुछ समझती थी। अनुचित व्यवहार किये जाने पर . भी पति को दोष न देकर वह इसे अपने कर्मों का ही फल मानकर पति की कल्याणकामना के साथ उसे उचित सलाह देने का यत्न करती थी। पति द्वारा परित्यक्ता सीता राम के प्रति कहती है-हे राम! आप उत्कृष्ट चेष्टा के घारक है, सद्गुणों से सहित है और पुरुषता से युक्त है । मेरे त्यागने में आपको लेशमात्र भी दोष नहीं है । १२ जब मेरा अपना कर्म उदय में बा रहा है तर पति, पुत्र, पिता, नारायण अथवा अन्य परिवार के लोग क्या कर सकते है। लेकिन इस तरह आप सम्यग्दर्शन को न छोड़ें, क्योंकि मेरे साथ वियोग को प्राप्त ८. पद्भ० ३२११३१ । ९. जातेन नन पुरेण तत्कर्तव्यं गृहेषिणा !
येन नो पितरो शोकं कनिष्ठमपि गच्छतः ।। पुनाति प्रायते चायं पितरं येन शोकतः ।
एतत्पुत्रस्य पुत्रत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः ।। पद्म० ३१११२६-१२७ । १०. वही, ३१११९८-१९९ ।
११. वही, ४।६७ । १२, वही, ९७४१५५ ।
१३. वही, ९७४१५७ ।