Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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४६ : पद्म चरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
पिठर ११ ---मटका या घटलोई । सूर्प१२८-अनाज से कूड़ा करकट अलग करने का पात्र ।
इसके अतिरिक्त मिट्टी, बाँस तथा पलाश के पत्तों से सब प्रकार के बर्तन तथा उपयोगी सामान बनाने का उल्लेख इभा है । १५ अनाज रखने के लिए पल्यौघ (खतिमा) बनाई जाती थीं।
विद्या पद्मचरित के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय विद्या मौखिक और लिखित दोनों प्रकार से दी जाती थी । प्रारम्भ में वर्णमाला सीखना आवश्यक था । एक स्थान पर बक्रपुर के राजा चक्रध्वज और उसकी मनस्विनी नामक स्त्री से उत्पन्न चिसोमवा नामक कन्या का गुरु के घर जाकर सरिया मिट्टी के टुकड़ों से वर्णमाला लिखने का वाचन किया गया है । १४०
विद्या प्राप्ति के लिए आवश्यक बाते-विद्या प्राप्ति के लिए स्थिर पित होना भावश्यक माना जाता था। बाद शिष्य शक्ति से युक्त होता था तो वह गुरु के लिए प्रसन्नता का विषय होता था। जिस प्रकार सूर्य के द्वारा नेत्रवान् (अर्थात् नेत्र शक्ति से युक्त) पुरुष को समस्त पदार्थ सुख से दिखाई देते हैं। नेत्रहीन पुरुष को सूर्य का प्रकाश होने पर भी कुछ भी नहीं दिखाई देता उसी प्रकार शक्ति रहित अथवा अल्पशक्ति पाले शिष्य को भी विद्या प्राप्ति होने में कठिनाई होती है । ४२ पात्र अपात्र का अधिक ध्यान रखा जाता था। पात्र के लिए उपदेश देने वाला गुरु कृतकृत्यता को प्राप्त हो जाता है। जिस प्रकार उस्ल के लिए किया हुभा सूर्य का प्रकाश व्यर्थ होता है, उसी प्रकार अपात्र के लिए दिया हुआ उपदेश व्यर्थ होता है । ४३ कर्म के प्रभाव से ही शीन से या देर से विद्या की सिति होती है। किसी को इस वर्ष में, किसी को एक माह में और किसी को एक ही क्षण में विद्या सिद्ध हो जाती हैं, यह सब कमो का प्रभाव है ।१४४
गुरु का महत्त्व-गुरु का उस समय अधिक महत्त्व था। शिष्य कितना ही निपुण क्यों न हो वह गुरु या आचार्य की मर्यादा का सदा ध्यान रखता था | विद्युत्केश विद्याधर ने एक मुनिराज से पूछा कि हे देव I मैं क्या फलं? मेरा क्या कर्तव्य है ? इसके उत्तर में मुनिराज ने कहा कि चार ज्ञान के धारी हमारे
१३७. पद्म० ३३५१८०। १३१. वही, ४१।११। १४१. वही, २६१७। १४३. बही, १००५२।
१३८. पद्म० ३३॥१८०। १४०. वहीं, २६॥७॥ १४२, वही, १००१५० । १४४. वहीं, ६।२६२-२६४ ।