Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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सामाजिक व्यवस्था : ६७
है उसी प्रकार सेवक भी स्वामी को उपभुक्त वस्तुओं को धारण करता है ।।२८ जो अपने गौरव को पीछे कर देता है तथा पानी प्राप्त करने के लिए भी जिसे झुकना पड़ता है इस प्रकार तुला मन्त्र को उपमा धारण करने वाले भृत्य का जीवित रहना धिक्कारपूर्ण है । २०९ जो उन्नति, लज्जा, दीप्ति और स्वयं निज को इच्छा से रहित है तथा जिसका स्वरूप मिट्टी के पुतले के समान क्रियाहीन है ऐसे सेवक का जीवन किसीको प्राप्त न हो। जो स्वयं शक्ति से रहित है, अपना मांस भी बेचता है, सदा मद से शून्य है और परतन्त्र है ऐसे भृत्य के जीबन को धिक्कार है ।३११
विभिन्न जातियों या वर्ग-पद्मचरित में विभिन्न जातियों या वो के नाम आए हैं। ये जातियां या वर्ग निम्नलिखित है
सायः १२.-- सेवा हो पाया। धानुष्क३१-धनुष धारण करने वाला पानुष्क कहलाता था। क्षत्रिय१४–जो पुरुष आपत्ति से प्रस्त मनुष्य की रक्षा करते थे । धार्मिक-धर्म सेवन करने वाला३१५ व्यक्ति धार्मिक कहलाता था। ब्राह्मण-ब्राह्मचर्य धारण करने वाला ब्राह्मण कहलाता था।
श्रमण-जो राजा राज्य छोड़कर तप के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ते थे वे श्रमण कहलाते थे। क्योंकि श्रम करे सो श्रमण और तपश्चरण ही श्रम कहा जाता है ।३१७ ३०८. संकारकूटकस्यैव परचान्निस चेतसः ।
निर्माल्यवाहिनो पिग्विरभूत्यनाम्नोऽसुधारणम् ।। पद्य ९७१४४। ३०९. पश्चात्कृतगुरुत्वस्य तोयार्थमपि नामिनः ।
तुलायन्त्रसमानस्य धिभत्यस्था सुधारणम् ।। पन० २७।१४५ । ३१०. उन्नत्या त्रपया दीप्त्या वजितस्म निजेन्छया ।
मा स्म भूज्मन्म मृत्यस्य पुस्तकर्म समात्मनः ॥ पत्र ९७१४६ । ३११. निःसस्वस्म महामांसविक्रय फुर्वतः सदा ।
निर्मदस्यास्वतन्त्रस्प पिग्मृत्यस्याऽसुधारणम् ॥ पद्म ९७.१४८ ३१२. सेवक : सेवया युक्तः ।।
पय ६२०८ । ३१३. घानुष्को धनुषो योगाद् ।।
पप० ६।२०८ । ३१४. पन० ३।२५६ । ३१५. धार्मिको घमसेवनात् ।
पप० ६२०१। ३१६. ब्राह्मणो ब्रह्मचर्यतः ।
पच० ६।२०९। ३१७, परित्यज्य नृपो राज्यं श्रमणो जायते महान् ।
तपसा प्राप्तसम्बन्ध तपो हि श्रम उभ्यते ॥ पत्र २१ ।