Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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सामाजिक व्यवस्था : ६३
की शिल्प कलाओं का उपदेश दिया। उन्होंने नरी का विभाग, ग्राम आदि का बसाना और मकान आदि के निर्माण की कला प्रजा को सिखाई । २८५
क्षत्रियादि त्रिवर्ण की प्रसिद्धि-भगवान् ऋषभदेव ने जिन पुरुषों को विपत्तिप्रस्त मनुष्य की रक्षा करने में नियुक्त किया था वे अपने गुणों के कारण लोक में क्षत्रिय इस नाम से प्रसिद्ध हए ।२८ वाणिज्य, खेती, गोरक्षा आदि के व्यापार में जो लगाये गये थे वे लोक में वैश्य कहलाये । २८७ जो नीच कार्य करते थे तथा शास्त्र से दूर भागते थे, उन्हें शुत संज्ञा प्राप्त हुई। शूद्रों के प्रेष्य आदि अनेक भेद थे ।२८८
ब्राह्मण वर्ण और उसका इतिहास-एक बार अयोध्या नगरी के समीप भगवान् ऋषभदेव पधारे । उन्हें आया जानकर भरत, मुनियों के उद्देश्य से बनवाया हुआ नाना प्रकार का उत्तमोत्तम भोजन नौकरों से लिवाकर भगवान के पास पहुँचे । आहार के लिए प्रार्थना करने पर ऋषभदेव ने कहा कि जो भिक्षा मुनिर्यों के उद्देश्य से तैयार की जाती है लह उनके (भदेव के) योग्य नहीं है, मुनिजन उदिष्ट (विशेष उद्देश्य पूर्वक तैयार किया हुआ) भोजन ग्रहण नहीं करते । ऋषभदेव के ऐसा कहने पर भारत ने इस भोजन सामग्री से गृहस्थ का व्रत धारण करने वाले पुरुषों को भोजन कराना नाहा । सम्राट ने आंगन में बोए हए जो, धान, मूग, उड़द आदि के संकुरों से सम्पष्टि पुरुषों की छांट कर ली तथा उन (सम्यग्दृष्टि) पुरुषों को, जिनमें रत्न पिरोया गया था ऐसे सुवर्णमय सुन्दर सूत्र के चिन्ह से चिन्हित कर भवन के भीतर प्रविष्ट करा लिया और उन्हें इच्छानुसार दान दिया 1 भरत के द्वारा सत्कार पाकर के ब्राह्माण गर्वयुक्त हो समस्त पृथ्वी पर फैल गए ! एक बार भगवान ऋषभदेव ने अपने समवसरण में कहा कि भरत में जिम ब्राह्मणों की रचना की है वे वर्समान तीर्थंकर के बाद पाखण्डी एवं उद्त हो जायेंगे। ऐसा मुनकर भरत कुपित होकर उनको मारने के लिए उद्यत हुए। वे सब ब्राह्मण भयभीत होकर ऋषभ
२८५. शिल्पानां शतमुद्दिष्टं नगराणां च कल्पनम् ।
प्रामाधिसन्निवेशाश्च तथा वेश्मादिकारणम् ।। पम०, ३।२५५ २८६. क्षसत्राणे नियुका ये तेन नाथेन मानवाः ।
क्षत्रिया इति ते लोके प्रसिविं गुणतो गताः ।। पन० ३।२५६ २८७. वाणिज्यकृषि गौरक्षाप्रभृतो में निवेशिताः ।
व्यापारे वैश्यशब्देन ते लोफे परिकीर्तिताः ।। ३५२५७ २८८. ये तु श्रुताद् दुति प्राप्ता नीचकर्मविधायिनः ।
शदसंज्ञामवापुस्ते भेवैः प्रेष्यादिमिस्तथा ।। पप० ३१२५८