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अर्थात् परतीर्थ - एकान्तवादी, दुर्नय का आश्रय लेने वाले परवादी रूप ग्रहों की आभा को निस्तेज करने वाले, तप रूप तेज से सदैव देदीप्यमान सम्यग् ज्ञान से उजागर, उपशम प्रधान संघ रूप सूर्य का कल्याण हो । यहाँ लेश्या का अर्थ दीप्ति तेज विशेष है ।
जैसे सूर्योदय होते ही अन्य सभी ग्रह प्रभाहीन हो जाते हैं वैसे ही श्रीसंघ रूपी सूर्य के सामने अन्य दर्शनकार, जो एकांतबाद को लेकर चलते हैं, प्रभाहीननिस्तेज हो जाते हैं ।
अस्तु लेश्या जैन दर्शन का एक पारिभाषिक शब्द है । इसकी व्याख्या शरीर और आत्मा के सांयोगिक भाव से की जाती है । आजीविक सम्प्रदाय जो कि गोशालक से पहले विद्यमान था, उसमें अभिजाति के नाम से लेश्या की पर्याप्त व्याख्या है । इसी की छाया बौद्ध ग्रन्थों में है । भावविशुद्धि के आरोह व अवरोह क्रम में सभी परम्पराएं इसे तुला स्वरूप मानती है ।
तप-संयम की भावना से जिसका अंतःकरण सुवासित है, वह भावितात्मा अनगार छद्मस्थ ( अवधि ज्ञान आदिरहित ) होने से ज्ञानावरणीय आदि कर्म के योग्य अथवा कर्मसम्बन्धी कृष्णादि लेश्या को नहीं जान देख सकता । क्योंकि कर्म द्रव्य व लेश्या द्रव्य अति सूक्ष्म होते हैं । वे छद्मस्थ के लिए अगोचर है । परन्तु कर्म और लेश्या युक्त शरीरधारी जीव को जानता देखता है । क्योंकि शरीर चक्षुरिन्द्रियग्राह्य होता है और आत्मा का शरीर के साथ कथंचित् अभेद होने व स्वसंविदित होने के कारण जानता देखता है ।
चन्द्र आदि विमानों के पुद्गल पृथ्वीकायिक होने से अचेतन है और कर्म लेश्यावाले हैं । किन्तु उनसे निकले हुए प्रकाश के पुद्गल, कर्म लेश्यावाले नहीं होते हैं, तथापि उनसे निकले हुए होने के कारण प्रकाश के पुद्गल उपचार से कर्म यावाले कहे जाते हैं । आगम में कहा है.
कयरे णं भंते! सरूवी सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभासेंति जाव प्रभासेंति ? गोयमा ! जाओ इमाओ चंदिम-सूरियाणं देवाणं विमाहिंतो लेस्साओ बहिया अभिणिस्सडाओ ताओ ओभासेंति प्रभासेंति एवं एएणं गोयमा ! ते सरूवि सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभासेंति उज्जोवेंति तवेंति पभासेंति ।
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- भग० श १४ । उ ६ स १२५
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