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कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । ग्रन्थकार, व्याख्यानिक, वादी, तपस्वी, चमत्कारी साधु-यति हुए जिन्होंने अपने व्यक्तिल्वसे जैन समाजको समुन्नत करनेमें उत्तम योग दिया।
जिनेश्वर सूरिके जीवनका अन्य यतिजनों पर प्रभाव । जिनेश्वर सूरिके प्रबल पाण्डित्य और प्रकृष्ट चारित्रका प्रभाव इस तरह न केवल उनके निजके
शिष्यसमूहमें ही प्रसारित हुआ, अपि तु तत्कालीन अन्यान्य गच्छ एवं यतिसमुदायके भी बडे बडे व्यक्तित्वशाली यतिजनों पर उसने गहरा असर डाला और उसके कारण उनमेंसे भी कई समर्थ व्यक्तियोंने, इनके अनुकरणमें, क्रियोद्धार और ज्ञानोपासना आदिकी विशिष्ट प्रवृत्तिका बडे उत्साहके साथ उत्तम अनुसरण किया। इनमें बृहद्गच्छके नेमिचन्द्र और मुनिचन्द्र सूरिका संप्रदाय तथा मलधार गच्छीय अभयदेव सूरिका समुदाय एवं पूर्णतल्ल गच्छानुयायी प्रद्युम्न सूरिका शिष्यपरिवार विशेष उल्लेख योग्य है। मुनिचन्द्र सूरिकी शिष्य-सन्ततिमें वादी देवसूरि, भद्रेश्वर सूरि, रत्नप्रभ सूरि, सोमप्रभ सूरि आदि बडे ख्यातिमान् , महा विद्वान् और समर्थ ग्रन्थकार हुए । इन्हींकी शिष्यपरंपरामें आगे जा कर जगच्चन्द्र सूरि
और उनके शिष्य देवेन्द्र सूरि, तथा विजयचन्द्र सूरि आदि प्रख्यात आचार्य हुए, जिनसे श्वेताम्बर संप्रदायमें पिछले ५००-६०० वर्षों में सबसे अधिक प्रतिष्ठाप्राप्त त पागच्छ नामक संप्रदायका प्रचार और प्रभाव फैला । वर्तमानमें श्वेताम्बर संप्रदायमें सबसे अधिक प्रभाव इसी गच्छका दिखाई दे रहा है।
मलधार गच्छीय अभयदेव सूरिके शिष्य-प्रशिष्यों में हेमचन्द्र सूरि (विशेषावश्यकभाष्यव्याख्यादिके कर्ता) लक्ष्मणगणी, श्रीचन्द्र सूरि आदि बडे समर्थ विद्वान् हुए जिनके चारित्र और ज्ञानके प्रभावने तत्कालीन जैन समाजकी उन्नतिमें विशेष प्रशंसनीय कार्य किया । पूर्णतल्ल गच्छमें देवचन्द्र सूरि और उनके जगप्रसिद्ध शिष्य कलिकाल-सर्वज्ञ हेमचन्द्र सूरि और उनके शिष्य रामचन्द्र, बालचन्द्र आदि हुए । हेमचन्द्र सूरिकी सर्वतोमुखी प्रतिभाने जैन साहित्यको कैसा गौरवान्वित किया और उनके अप्रतिम सदाचरण तथा अलौकिक तपस्तेजने जैन समाजको कितना समुन्नत बनाया यह इतिहास प्रसिद्ध है।
जिनेश्वर सूरिसे जैन समाजमें नूतन युगका आरंभ । जनके प्रादुर्भाव और कार्यकलापके प्रभावसे जैन श्वेताम्बर समाजमें एक सर्वथा नवीन युगका आरंभ
होना शुरू हुआ। पुरातन प्रचलित भावनाओंमें परिवर्तन होने लगा । त्यागी और गृहस्थ दोनों प्रकारके समूहोंमें नये संगठन होने शुरू हुए । त्यागी अर्थात् यतिवर्ग जो पुरातन परम्परागत गण और कुलके रूपमें विभक्त था, वह अब नये प्रकारके गच्छोंके रूपमें संघटित होने लगा । देवपूजा और गुरूपास्तिकी जो कितनीक पुरानी पद्धतियां प्रचलित थीं उनमें संशोधन और परिवर्तनके वातावरणका सर्वत्र उद्भव होने लगा। इसके पहले यतिवर्गका जो एक बडा समूह चैत्यनिवासी हो कर चैत्योंकी संपत्ति और संरक्षाका अधिकारी बना हुआ था और प्रायः शिथिलक्रिय और खपूजानिरत हो रहा था, उसमें इनके आचारप्रवण और भ्रमणशील जीवनके प्रभावसे, बडे वेगसे और बडे परिमाणमें परिवर्तन होना प्रारंभ हुआ । इनके आदर्शको लक्ष्यमें रख कर, जैसा कि हम ऊपर सूचित कर आये हैं, अन्यान्य अनेक समर्थ यतिजन चैत्याधिकारका और शिथिलाचारका त्याग कर, संयमकी विशुद्धिके निमित्त उचित क्रियोद्धार करने लगे और अच्छे संयमी बनने लगे । संयम और तपश्चरणके साथ साथ, भिन्न भिन्न विषयोंके शास्त्रोंके अध्ययन और ज्ञान-संपादनका कार्य भी इन यतिजनोंमें खूब उत्साहके साथ व्यवस्थित रूपसे होने लगा। सभी उपादेय विषयोंके नये नये ग्रंथ निर्माण किये जाने लगे और पुरातन ग्रन्थोंपर टीका-टिप्पण आदि रचे जाने लगे। अध्ययन-अध्यापन और ग्रन्थ-निर्माणके कार्यमें आवश्यक ऐसे पुरातन जैन
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