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कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि ।
पूजाका माहात्म्य बढानेवाला एक आश्चर्यजनक प्रसंग हुआ । उस समय बहुतसे साधुलोक विहारचर्या से भग्न हो गये । मासकल्प पूरा हो जाने पर भी वे दूसरी जगह बिहार करके नहीं जाते थे - अरे मास क्या वर्ष अन्तमें भी कहीं जानेकी इच्छा नहीं करते थे । इससे उनको वसति देनेवाला सध्यातर ( श्रावक ) वर्ग भी भग्नपरिणाम हो गया । यदि कभी कोई साधु इधर-उधर विहार करके चले जाते थे, तो फिर उनको ठहरनेके लिये वे श्रावक अपना स्थान नहीं देते थे । ऐसी परिस्थितिके हो जाने पर जब साधुओंको ठहरने करने का कोई स्थान नहीं मिलने लगा, तो वे सोचने लगे कि किस तरह हमको अपने रहनेका स्थायी स्थान प्राप्त करना चाहिये । सोचते हुए उपाय सूझ आया । यदि इन गृहस्थोंको चैत्यालय बनाने के काम में प्रेरित किया जाय तो उसके द्वारा, मन्दिरके साथ हमें सदैव रहनेका मकान भी मिल सकेगा । अतः उन्होंने उपासक जनोंको उपदेश देना शुरू किया, कि जो मनुष्य अंगूठेके जितनी भी जिनप्रतिमा बनावेगा वह सुखोंकी परंपराका उपभोग करता हुआ और बोधिलाभको प्राप्त करता हुआ, सिद्धिपदको प्राप्त करेगा । और जो समूचा जिनमन्दिर ही बनानेका उद्यम करेगा, उसको तो तुरन्त ही बहुत बडा फल प्राप्त होगा । इसलिये - 'हे महानुभावो, तुम मन्दिरोंके बनानेका उद्योग करो । जहां तुम्हारा काम अटकेगा वहां हम तुम्हें सहायता करेंगे।' इस तरह उन्मार्गप्रवृत्त, लिङ्गोपजीवी, इह लोकसुखार्थी और परलोकपराङ्मुख ऐसे उन साधुओंने बहुतसे जिन चैत्य उस गांव में खडे करवाये ।'
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इस कथनको सुन कर बीचही में उस विक्रमसेन राजाने पूछा कि - 'क्या भगवन्, इस प्रकार जिनमन्दिरोंका बनवाना अयुक्त है ? '
समन्तभद्र सूरिने कहा - 'महाराज, यह गृहस्थों के लिये एक कर्तव्य है, लेकिन सो भी आगमोक्त विधिपूर्वक; परंतु साधुओंके लिये नहीं । साधुओंको तो उपदेशके समयमें, उचित अवसर पर, द्रव्यस्तव रूपसे इसकी प्ररूपणा करनेका अधिकार है; किंतु क्रियाकालमें कोई सहयोग देनेका नहीं है । वह सहयोग इस प्रकारका कि यहां पर गड्डा करो, यह मिट्टी निकालो, पत्थर लाने के लिये गाडियां तैयार करो, माल (वनमें) जा कर फूल चिन लाओ - इत्यादि प्रकारका आदेशात्मक कर्म करना साधुके लिये कर्तव्य नहीं है । क्यों कि साधुने तो पृथ्वी काय आदि जीवों की हिंसा के लिये त्रिविध-त्रिविध ( न करना, न कराना और न अनुमोदना - इस प्रकारका ) प्रत्याख्यान किया है । यदि वे इस प्रकारका आदेश करें तो फिर उनकी वह हिंसानिवृत्ति कैसे निभ सकती है ? इसलिये साधुओंको वणिक्पुत्र के दृष्टान्तके समान गृहस्थोंके आगे धर्मोपदेश करना ही कर्तव्यमात्र है ।'
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सुन कर राजाने कहा- 'भगवन्, वह वणिक्पुत्रका दृष्टान्त सुनाइये तो कैसा है ?'
तब गुरुने इस प्रकार यह दृष्टान्त सुनाया -
वणिक्पुत्र दृष्टांत |
एक नगर में एक समय राजाने कौमुदी महोत्सव के मनाये जाने की घोषणा करवाई और आज्ञा दी कि नगरमें जितना भी कच्छ बान्धनेवाला पुरुषवर्ग है वह आज रातको उद्यानमें चला जाय । आज रातको नगर में रानियां अर्थात् राजमहलकी स्त्रियां घूमेंगीं फिरेंगीं । इसलिये जो कोई पुरुष बहार नहीं चला जायगा उसे शारीरिक शिक्षा मिलेगी राजा भी स्वयं नगरसे बहार जा रहा है; इसलिये सब नगरजनों को बहार निकल जाना चाहिये । इस घोषणाको सुन कर सब नागरिक जन बहार निकल गये । परंतु एक सेठके ६ पुत्र थे वे अपने किसी महत्त्वके व्यापारिक कार्यमें आसक्त हो कर वक्त पर बहार नहीं निकल पाये और शहर के दरवाजे बन्ध हो गये । इससे वे नगरसे बहार न निकल पाये और उस रातको रास्ते में ही कहीं खण्डहरसे पडे हुए किसी एक मकान में सो गये
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