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कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि ।
वल्लभ' के गुणकी बात कही सो तो तीर्थंकर में भी संभव नहीं हो सकता। क्यों कि तीर्थंकरका भी सर्वजनवल्लभ होना शक्य नहीं है । तब फिर अन्य जनोंकी तो बात ही क्या है ? इसलिये केवल सूत्रके शब्दों को पकड कर नहीं बैठना चाहिये, लेकिन उसके विषयविभागकी विचारणा करनी चाहिये । तुमने जो यह विचार प्रकट किया, कि बनियोंका प्रव्रज्या पालन कैसा - इत्यादि । सो भी तुम्हारा भ्रमजनक है । शालिभद्र, धन्ना, सुदर्शन, जंबू, वज्रखामी, धनगिरि आदि बडे बडे मुनि हो गये जो जातिसे वर्णिक थे । तुमने अपने ये सब भ्रान्त विचार प्रकट करके तीर्थंकरोंकी आशातना की है और उस आशातनाका फल है दीर्घकाल तक संसारमें परिभ्रमण करते रहना' - इत्यादि ।
इस प्रकार सागरचन्द्र सूरिके कथनको सुन कर उस मुनिचन्द्रके मनमें बडा रोष उत्पन्न हुआ । लेकिन सागरचन्द्र राजपुत्र होनेसे भयके मारे उसको कुछ वह प्रतिउत्तर नहीं दे सका और वहांसे कुपित हो कर चला गया। उसके जो कुछ भक्तजन बन गये थे वे सागरचन्द्र सूरिके धर्मोपदेश से पुनः अपने मार्ग में स्थिर हो गये और मुनिचन्द्र के विचारोंकी निन्दा करने लगे । मुनिचन्द्र अपने उन्मार्गदर्शक विचारोंके कारण मर कर दुर्गतिको प्राप्त हुआ । इत्यादि ।
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जिनेश्वर सूरिने इस कथाको खूब विस्तारके साथ लिखा है । हमने तो यहां पर इसका केवल सारार्थ मात्र दे दिया है । पाठक इस कथानकके वर्णनसे यह जान सकेंगे कि उस समय में भी जैन साधुओं में कैसे कैसे विचारोंका ऊहापोह होता रहता था । इसी तरह के विलक्षण विचारोंका ऊहापोह आज भी जैन साधुओं में वैसे ही चलता रहता है जिनका दिग्दर्शन समाजको भिन्न भिन्न मतोंके स्थापक उत्थापक वर्गोंके परस्परके खण्डन- मण्डनसे अनुभूत हो रहा है । ये सब मतवादी परस्पर एक दूसरेको मिथ्यावादी और जैनशासनके विराधक कहते रहते हैं ।
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जिस प्रकार इन उपर्युक्त कथानकोंमें श्वेतांबर जैनसाधुओंके परस्परके मतभेदोंके और पक्षापक्षीके संघर्षसूचक विचारोंका चित्र अंकित किया गया मिलता है इसी प्रकार कुछ अन्य कथानकोंमें दिगंबर जैन संप्रदाय एवं बौद्ध और ब्राह्मण संप्रदायके अनुयायियों के साथ भी जैन साधुओंका कैसा संघर्ष होता रहता था इसके चित्र भी अंकित किये गये मिलते हैं ।
श्वेताम्बर - दिगम्बर संघर्ष सूचक कथानक
२५ वां कथानक एक दत्त नामक साधुका है जिसमें यह बताया गया है कि किस तरह दिगंबरा - उपासकोंने एक श्वेतांबर भिक्षुकको लोकोंमें निन्दित बनानेकी चेष्टा की और कैसे उस साधुने अपने बुद्धिचातुर्य से उस चेष्टाको विफल बना कर उलटमें उन्हींको लज्जित बनानेका सफल प्रयत्न किया । इस छोटेसे कथानकका सार पढिये ।
जिनेश्वर सूरिने लिखा है कि- भगवान् महावीरके निर्वाण बाद, कुछ शताब्दियोंके व्यतीत होने पर, बौटिक नामका एक निन्हव संप्रदाय उत्पन्न हुआ । उस समय एक संगम नामक स्थविर ( श्वेतांबर ) आचार्य थे जिनके ५०० शिष्य थे । उन शिष्योंमें एक दत्तक नामका साधु था जो बडा घुमक्कड था । किसी एक प्रयोजनके लिये आचार्यने उसको एक दफह एकाकी ही किसी ग्रामान्तरको भेजा । वह चलता चलता संध्या समय किसी एक छोटेसे गांवमें पहुंचा और वहां रात रद्दनेके लिये अपने योग्य कोई
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