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कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । साथ श्वेतांबर साधुओंका कैसा संघर्ष होता रहता था इसका चित्र हमें देखनेको मिलता है । कथाका कुछ सार इस प्रकार है
इस भारतवर्षके साकेत नामक नगरमें यदु नामक राजा राज्य करता था, जो तश्चनिक अर्थात् बौद्ध मतका भक्त था । उसके मनमें भिक्षुमत यानि बौद्धमत ही तत्त्वभूत पदार्थका उपदेश देनेवाला मत है
और अन्य कोई मत वैसा नहीं है,-ऐसी मान्यता ठंसी हुई थी और इसलिये वह साधुओंका अर्थात् जैन साधुओंका कभी बहुमान नहीं करता था-प्रत्युत इस प्रकार उपहास किये करता था कि-ये साधु तो उस स्याद्वाद मतको मानने वाले हैं जिससे किसी प्रकारका लोकव्यवहार सिद्ध नहीं होता है । इस 'स्याद्वाद'के सिद्धान्तानुसार माता भी अमाता, पिता भी अपिता, धर्म भी अधर्म, मोक्ष भी अमोक्ष और जीव भी अजीव सिद्ध होता है । इस तरह इस सिद्धान्तसे कोई बात घट नहीं सकती। इसीलिये जो अरिहंत है वह भी सर्वज्ञ नहीं सिद्ध हो सकता;- इत्यादि प्रकारके विचार वह अपने सभास्थानमें भी प्रकट किये करता था।
उस राजाका मंत्री सुबन्धु नामक था जो जैन श्रमणोपासक था । राजाद्वारा किये जाने वाले अपने धर्मके उपहासवचनोंको सुन कर, उसके मनमें खेद होता रहता था । एक समय वहां पर सुचन्द्र नामक जैन श्वेतांबर आचार्य आये तो उनको मंत्रीने वह सब बात सुनाई और कहा कि - 'इस इस प्रकार राजा [ अपने धर्मके विरुद्ध ] बोलता रहता है।" सुन कर सूरिने कहा- 'भाई, जो बाडीमें ताडते रहते हैं वैसे बैल तो घर घरमें होते हैं । परंतु जिसके सिरपर बडे तीक्ष्ण सींग होते हैं और जिसका स्कन्ध खूब मांसल हो कर कठोर टक्कर लेनेमें बडा मजबूत होता है वैसे वृषभ (मत्त सांड )के आगे दहाडना कठिन होता है । इसलिये इसमें कुछ तथ्य नहीं है' इत्यादि । अपने गुप्त चरोंद्वारा राजाको यह बात ज्ञात हुई तो उसने अपने धर्मगुरु जयगुप्त भिक्षुको कहा कि- 'वाद-विवादका आव्हान सूचन करनेवाला श्वेतांबर साधुओंको 'पत्र' (चेलेंज) देना चाहिये ।' तब उस भिक्षुने वह पत्र तैयार किया और उसे सिंहद्वारपर लगा दिया गया । सुचन्द्रसूरिने उसको ले लिया और फाड कर फेंक दिया । फिर सूरि राजद्वारमें गये
और जयगुप्तको विवाद करनेके लिये बुलानेकी खबर दी । सूरिने पत्रकी व्याख्या की और वादविषयक अपनी प्रतिज्ञा समझाई । वादका विषय और उसके प्रतिपादनकी शैलीका निर्णय किया गया । सूरिने कहा- 'इस शैलीके मुताबिक या तो हम पूर्वपक्ष करें और उसका उत्तर जयगुप्त भिक्षु दें; या फिर भिक्षु पूर्वपक्ष करें और हम उसका उत्तर दें। इसमें कहीं एक भी दोष आया तो उसका सबमें पराजय माना जाय । इस प्रतिज्ञाके अनुसार, जयगुप्त भिक्षुने 'क्षणिकवाद'को मुख्य करके अपना पूर्वपक्ष उत्थापित किया । सूरिने उसका अनुवाद करते हुए उसे 'दूषित' सिद्ध किया । भिक्षुसे उसका ठीक उत्तर देते नहीं बना । परंतु राजा उसका पक्षपाती होनेसे उसने 'जयपत्र' देना नहीं चाहा और कहा कि- 'वाद अभी और होना चाहिये। ऐसा कह कर उस दिन सभा बन्ध कर दी गई । भिक्षु उठ कर चले गये और सब लोकोंको कहने लगे कि- 'हमारी जीत हुई है । लेकिन राजा मनमें तो समझ गया था कि मेरे गुरुओंकी हार हुई है। इससे उसके मनमें उलटा द्वेष बढा और वह जैन साधुओंके छिद्र ढूंढने लगा । सूरिको यह ज्ञात हुआ । उधर जो बौद्ध मती थे वे राजाको कहने लगे कि - 'इन श्वेतांबरोंको देशसे बहार कर देना चाहिये ।' तब राजाने कहा कि-'प्रसंग आने पर ऐसा किया जायगा । इनके बहुत लोक भक्त हैं, इसलिये सहसा कुछ करनेमें कहीं प्रजाका विरोध भाव न हो जाय ।' उधर सूरिने अपने शिष्योंमें जो सबसे अधिक बड़ा तपखी था
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