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जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन-कथाकोश प्रकरण । वसतिकी तलाश करने लगा; पर वह न मिली । तब वह वहां पर जो एक बौटिक चैत्यालय ( दिगंबर जैनमन्दिर ) था उसमें चला गया। यह मेरे लिये योग्य एषणीय स्थान है, ऐसा समझ कर वहीं उसने रात्रिवास व्यतीत करना चाहा । इसका पता जब बौटिक श्रावकोंको लगा, तो द्वेषवश उन्होंने उसका उड्डाह करनेकी दृष्टिसे, कुछ पैसे दे कर एक वेश्याको रातको उस साधुके पास भेजा । फिर उन्होंने मन्दिरके दरवाजे बन्ध करके उसको बाहरसे ताला लगा दिया । प्रहरभर रात्रिके बीतने पर वह गणिका (वेश्या) उस साधुको हैरान करनेको उद्यत हुई। पर दत्त विरक्त था इसलिये वह निष्प्रकंप हो कर बैठ रहा । साधुकी वैसी निष्प्रकंपताको देख कर वह गणिका उपशान्त हो गई और विनम्र हो कर कहने लगी कि- 'तुमको क्षुब्ध और भ्रष्ट करनेके लिये मुझे इन दिगंबर उपासकोंने पैसे दे कर यहां पर भेजी है । साधुने कहा - 'अच्छा है, एक किनारे जा कर सो जा । तुझे तो पैसेसे मतलब है और किसीसे तो नहीं ।' फिर उस साधुने उस वेश्याके सामने ही, उस मन्दिरमें जो दिया जल रहा था उसकी ज्वालासे अपने जितने वस्त्र और रजोहरण आदि उपकरण थे उन सबको जला दिया और मन्दिरमें जो एक पुराना मोरपिच्छ पड़ा हुआ था उसको उठा लिया। सवेरा होने आया तब उन दिगंबर श्रावकोंने लोगोंको इकट्ठा करके कहना शुरू किया कि- 'देखो, इस मन्दिरमें रातको एक श्वेतपट साधु वेश्याको ले कर
आ कर घुस गया है ।' तब सूर्योदय होने पर उन्होंने मन्दिरका दरवाजा खोला, तो वह दत्त उस वेश्याके कंधेपर अपना हाथ रखे हुए बहार निकलने लगा । लोगोंने देखा तो वह तो सर्वथा नग्न क्षपणक था । लोक कहने लगे- 'अरे, यह तो निर्लज्ज क्षपणक है, जो वेश्याके साथ यहां आ कर रहा है और अब भी इसके गलेमें विलग कर इसको ले जा रहा है !' तब दत्तने कहा - 'अरे, तुम मेरी अकेलेकी क्यों हंसी उडा रहे हो । ऐसे तो बहुतसे क्षपणक हैं जो इसी तरह रातको वेश्याओंके साथ रहा करते हैं।' तब फिर वे लोग बौटिक श्रावकोंकी हंसी उडाने लगे और कहने लगे कि-'बस, ऐसे ही तुम्हारे गुरु हैं। ठीक ही है, जो ऐसे भांडजैसे नंगधडंग होते हैं उनकी तो ऐसी ही गति होती है । मालूम देता है कि इसीलिये श्वेतांबरोंने वस्त्र ग्रहण किया है; और उन्हींका पक्ष सत्य मालूम देता है तुम्हारा नहीं ।' इत्यादि ।
यह कथानक इस बातका चित्र उपस्थित करता है कि दिगंबर और श्वेतांबर संप्रदायके बीचमें किस तरहका परस्पर द्वेषभाव रहा करता था और एक संप्रदाय वाले दूसरे संप्रदाय वालोंको नीचा दिखानेके लिये कैसे कैसे क्षुद्र और उपहसनीय प्रयत्न किया करते थे । मालूम देता है यह सांप्रदायिक प्रद्वेष और संघर्ष बहुत प्राचीन कालसे ही चला आ रहा है और अब भी वह शान्त नहीं हुआ है । दिगंबरों द्वारा श्वेतांबरोंका उपहास किये जानेकी ऐसी ही एक जुगुप्सनीय घटनाका उल्लेख, वादी देवसूरिके प्रबन्धोंमें मिलता है जिसमें यह कहा गया है कि सुप्रसिद्ध दिगंबराचार्य वादी कुमुदचन्द्रके भक्तोंने, कर्णावतीमें एक श्वेतांबर वृद्धा आर्याको, रास्तेके बीचमें निर्लज भावसे नचानेका निंद्य प्रयत्न किया था और उसी द्वेषमूलक प्रयत्नके परिणाममें वादी देवसूरिको सिद्धराज जयसिंहकी सभामें भट्टारक कुमुदचन्द्र के साथ वादमें उतरना पड़ा और उसमें दिगंबर पक्षको बडा भारी पराजय सहना पडा, इत्यादि ।
जैन और बौद्ध भिक्षुओंके संघर्षकी कथा इसके बादके २६ वें जयदेव नामक कथानकमें एक सुचन्द्रसूरि नामक जैन श्वेतांबर आचार्यका जयगुप्त नामक बौद्ध भिक्षुके साथ वादविवादमें उतरनेका वर्णन दिया गया है जिसमें बौद्ध संप्रदायके
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