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कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि ।। फिर तुम तो ब्राह्मण हो कर स्वयं हल - जोत्र आदि देते दिलाते हो । अरे डोडु ! यह तो जीभसे दाभका काटना जैसा तुम्हारा व्यवहार है; इसलिये हठ, यहां से दूर हो । और तूं कौशिक, हमारा बालमित्र हो कर भी हमारे गुरुओंकी निन्दा सुन कर दुगुना खुश हो रहा है और हमारे सन्मुख भी तूं इसे मना नहीं कर रहा है ? इसके लिये हम तुझे क्या कहैं ?' कौशिक - 'क्या मैं लोगोंका मुह बन्ध कर सकता हूं? इसमें मेरा क्या अपराध है ?' ऐसा कह कर वे डोड्ड और कौशिक दोनों दूसरी तरफ चले गये।
एक दिन फिर वह डोड दुकानमें बैठा हुआ साधुओंकी निन्दा करने लगा और कौशिक उसमें अपना अर्धहास्य मिलाने लगा । इतनेमें उसके सिर परके आकाशमार्गसे एक विद्याधर मिथुन उड कर निकाला । विद्याधरीने उस डोडुकी बातें सुनी और वह अपने पतिको कहने लगी कि- 'यह बहुत ही साधुनिन्दा कर रहा है इसलिये इसे कुछ शिक्षा करनी चाहिये ।' तब विद्याधरने अपने विद्याबलसे उसके शरीरमें १६ भयंकर रोग पैदा कर दिये और कौशिकको भी ज्वर और सांसके दो दुष्ट रोगोंसे आक्रान्त बना दिया । उनसे पीडित हो कर वे दोनों मृत्युको प्राप्त हुए और नरकगतिमें गये । इत्यादि ।
- इस प्रकार ब्राह्मणोंके साथ होते रहने वाले जैन साधुओंके आक्षेप-प्रतिक्षेप और वाद-विवादरूप संघर्षणके चित्र कुछ अन्यान्य कथानकोंमें भी अंकित किये गये दृष्टिगोचर होते हैं । इन कथानकोंके वर्णन परसे ऐसा ज्ञात होता है, कि जैन साधुओं पर ब्राह्मणोंका आक्षेप, मुख्य करके शौच धर्मको लक्ष्य कर होता रहता था और ब्राह्मणों पर जैन साधुओंके आक्षेप, खास करके वेदविहित हिंसाधर्मके एवं ब्राह्मण जातिके महत्त्व विरुद्ध होते रहते थे । ब्राह्मणों और जैनोंका यह पारस्परिक संघर्ष केवल शाब्दिक या वाचिक वाद-विवाद तक ही सीमित नहीं रहता था; कभी कभी तो वह शारीरिक शिक्षा और पीडाके रूपमें भी परिणत होता रहता था । ब्राह्मणों द्वारा जैन श्रमणोंको सताये जानेके अनेक दृष्टान्त जैन कथाओंमें मिलते हैं । जिनेश्वर सूरिने भी ऐसे कुछ कथानक इस ग्रन्थमें ग्रथित किये हैं, जिनमें ब्राह्मणों द्वारा जैन साधुओंको शारीरिक कष्ट पहुंचानेके प्रसंग चित्रित मिलते हैं। नीचे एक ऐसा ही कथानकका भावार्थ दिया जाता है जिससे यह ज्ञात होगा कि किस तरह एक ब्राह्मण जैन साधुओंको कष्ट देना चाहता है और उसके प्रतिकार रूपमें किस तरह जैन श्रावक अपने पक्षके राजा द्वारा ब्राह्मणोंको दण्ड दिलाता है । धनदेव नामक ३१ वें कथानकमें इसका चित्र अंकित किया गया है जिसका सार निम्न प्रकार है।
ब्राह्मणके उपद्रवसे जैनसाधुकी रक्षा करनेवाले धनदेव श्रावकका कथानक
कुशस्थल नामक नगरमें हरिचंद नामका राजा राज्य करता था। वहां पर धनदेव नामक सेठ रहता था जो जैनधर्मका दृढ उपासक था। वह जीवाजीवादि तत्त्वोंका जानने वाला पुण्य-पापको समझने वाला और सम्यक्त्वमूलादि अणुव्रतोंका पालन करने वाला था । चैत्यपूजा करनेमें वह रत रहता था
और साधर्मिकोंमें वात्सल्यभाव रखता था । वह नगरके सेठ, सार्थवाह, आदि धनिक जनोंका नेत्र खरूप हो कर, बहुतसे कार्यों में लोक उसकी सलाह लेते थे । इस प्रकार वह सब जनोंका सम्मानित, बहुमानित और श्रद्धास्पद हो कर श्रावक धर्मका परिपालन करता रहता था ।
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