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जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन-कथाकोश प्रकरण । दुःख होगा। इससे तो यही अच्छा है कि यह नारी ऐसा बकती हुई रहै । मैं उन साधुओंको भी नाककाटने की शिक्षा नहीं करता । बस तुम अपने घरों पर चले जाओ ।'
यह सुन कर यक्षने कहा- 'इसका क्या इतना ही दंड है जो इस प्रकार बोलती है ? इसके दंडमें तो उसीकी जमानत लेनी चाहिये जो ऐसा बुलवाता है !' राजा - 'सो ( जमानत देनेवाला) कैसे जान पडेगा ? और वह न्यासक ( जमानत देनेवाला) मी तुम्हें स्वीकार्य होगा या नहीं ?' तब दत्तने कहा'जो आपको स्वीकार्य होगा वह हमको भी खीकार्य होगा ।' तब राजाने कहा- 'ऐसी कोई जमानत लेना हमारे दण्डका विषय नहीं है । इसमें फिर क्या किया जाय ?' तब यक्षने कहा- 'महाराज तब तो आप ही को यह पसन्द है और इसीलिये इसको कोई शिक्षा नहीं दी जाती है । लेकिन यह अच्छा नहीं है। बांसको विनाशके समयमें फल लगता है । इसी तरह की तुम्हारी मति हो रही है । इसमें हम और क्या कहें। सुन कर राजा रुष्ट हो गया और बोला- 'अरे, उन दुराचारी साधुओंको कैदमें डाल दो । और इन बनियोंका सब सर्वस्व छीन कर इनको देशसे बहार निकाल दो।' सुन कर श्रावक वहांसे उठ खडे हुए । उन साधुओंको भी राजाके कर्मचारियोंने पकड कर कैदमें डाल दिये ।
तब वह तपखी साधु कायोत्सर्ग करके खडा हो गया। वह देवता आई और बोली- 'तुम सब निरुद्विग्न हो कर रहो । मैं सब अच्छा कर दूंगी।' फिर उस देवतासे अधिष्ठित हो कर राज्यके जो हाथी थे वे पागल हो गये । उन्होंने अपने महावतोंको उठा कर दूर फेंक दिया और जो घुडशाल थी उसको उध्वस्त कर दिया । राजमहलोंके आंगनमें जो कोई मनुष्य चलता नजर आता था उसे मार डालने लगे
और राजमहलोंकी भींतोंको गिराने लगे । बडा कोलाहल मच गया। राजके कोटार तोड डाले गये । हाथियोंको वश करनेवाले मनुष्य आये तो उनको भी पिस दिया गया । फिर वे हाथी उन बौद्ध भिक्षुओंके विहार (स्थान) तरफ लपके । मोतके डरसे भिक्षु इधर-उधर भाग निकले । बुद्धके विहारोंको नष्ट कर दिया गया; परंतु सन्मुख आनेवाले श्रावकोंका कुछ नहीं किया गया । फिर उन हाथियोंने बाजारको तहस-नहस कर डाला । लोगोंकी खूब भाग-दौड होने लगी। सारे नगरमें महाकोलाहल मच गया । यह सब देख कर राजा बहुत भयभीत हुआ। फिर गीला पटशाटक ओढ कर, हाथमें धूपका कडछा ले कर और अपने प्रधान सामंतादिकोंको साथमें रख कर बोलने लगा- 'मैंने कोपका प्रभाव अच्छी तरह देख लिया है । जिस किसीका मैंने अपराध किया हो वह मुझे क्षमा करें । मुझ पर कृपा की जाय - मैं शरण आ रहा हूं।' तब अंतरिक्षमें रहनेवाली उस देवताने कहा - 'अरे दास ! तूं मरा समझ । अब कहां जा सकता है ? तब राजाने प्रार्थना की - 'स्वामिनी, अनजानपनमें मैंने जो कोई अपराध किया हो उसे कहिये । मैं उसकी क्षमायाचना करूं।' तब देवताने कहा - 'पापिष्ठ, जब साधुओंको कलंक दे रहा था तब तो तूं बुद्धिमान् था और अब अनजान बन गया है । क्यों तैंने देवेन्द्रोंको भी वन्दनीय ऐसे साधुओंकी अवमानना की ? क्यों न्याय्यकथन करते हुए भी श्रावकोंको तिरस्कृत किया ? कहां वे भिक्षु गये जो साधुओंको देशनिकाला दिलवाना चाहते थे ? । तूं तो अब अपने इष्टदेवताका स्मरण कर । तेरा जीवित नहींसा समझ ले ।' राजा भयभीत हो कर कहने लगा- 'खामिनी ऐसा मत करो। मुझे प्राणभिक्षा दो । मैं किये हुएका प्रायश्चित्त करूंगा ।' तब देवताने कहा- 'तूं तो अभव्यसा दिखाई देता है । तो मी अभी छोडे देती हूं। यदि फिर कभी साधुओंका अथवा श्रावकोंका द्वेष किया है तो वैसा करूंगी जिससे भाग भी नहीं सकेगा। राजाने कहा- 'जो खामिनी कहेंगी वह सब करूंगा ।' देवी - 'यदि ऐसा है तो फिर जा उन साधुओंका सत्कार कर और श्रावकोंको सन्मान दे।'
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