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जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन - कथाकोश प्रकरण ।
१०७ विचारोंका खण्डन कर, स्वकीय पक्षके शास्त्रोक्त होनेकी और अन्य पक्षके अशास्त्रीय होने की प्ररूपणामें प्रवृत्त होता है । और इस तरह समाजमें एक नये पक्ष या मतकी स्थापना हो कर, उसके स्थापकका जैसा प्रभाव और सामर्थ्य होता है उसके अनुसार, उसका प्रवाह आगे बढता है और स्थापक व्यक्तिके 'अहंत्व' या 'ममत्व' को सन्तुष्ट करता है । जैन धर्मानुयायियोंमें जितने भी भिन्न-भिन्न संप्रदाय उत्पन्न हुए हैं उन सबकी उत्पत्तिमें मूल तो कोई ऐसा ही 'अहंत्व' 'ममत्व'सूचक काषायिक भाव ही प्रायः मुख्य कारण है । खयं श्रमण भगवान् श्री महावीरके साक्षात् जामाता राजकुमार जमालिके चलाए हुए पक्ष या मतसे ले कर आज पर्यंतके जैन इतिहासमें न जाने ऐसे कितने पक्ष और विपक्ष चले हैं और उनमेंसे कितने कालके प्रवाहमें बहते बहते विलीन हो गये हैं - इसकी गिनती कौन कर सकता है ? ।
जिनेश्वर सूरिने प्रस्तुत ग्रन्थमें, ईर्ष्यावश हो कर अपने गुरु-धर्माचार्यके विरुद्धमें एक मुनिचन्द्र नामक साधुने किस तरह गुरुके उपदेशको अशास्त्रीय बतलानेका प्रयत्न किया और किस तरह उनके भक्तोंको श्रद्धाविमुख बनानेका उपदेश दिया उसका अच्छा चित्र अंकित किया है । उसका कुछ सार इस प्रकार है
गुरुविरोधी मुनिचन्द्र साधुका कथानक __ एक धर्मघोष सूरि नामके आचार्य थे जिनके अनेक शिष्योंमेंसे मुनेचन्द्र और सागरचन्द्र नामक दो प्रधान शिष्य थे । इनमें मुनिचन्द्र ज्येष्ठ शिष्य हो कर सूरिका स्वयं भागिनेय था लेकिन बहुत आत्मगर्विष्ठ था और सूत्रोंके अक्षर मात्रको रटते रहने वाला हो कर भावार्थके विचारकी दृष्टि से शून्य था। सागरचन्द्र एक राजकुमार था और आंतरिक विरक्तिसे भावित हो कर उसने संसार त्याग किया था
और सूरिका अत्यंत विनम्र विनेय था। धर्मघोष सूरि जब बहुत वृद्ध हो गये और उनको अपना जीवनपर्याय पूर्ण होनेके निकट दिखाई दिया तो उन्होंने अनशन करनेका विचार प्रकट किया । उस समय मुनिचन्द्रने मनमें सोचा कि- मैं सूरिका भाणेज हूं, शास्त्रोंका ज्ञाता हूं और मेरे बहुतसे वजन भी हैं; इसलिये मृत्युके समय सूरि मुझे ही अपना उत्तराधिकारी आचार्य बनावेंगे । लेकिन सूरि तो बडे महानुभाव थे; मध्यस्थ चित्त हो कर केवल गुणोंका बहुमान करनेवाले थे। उन्होंने सागरचन्द्रको ही विशेष योग्य समझ कर उसे अपने पदपर स्थापित किया और सब गीतार्थ साधुओंने भी उसका बहुमान किया । फिर आचार्य तो अनशन कर स्वर्गको प्राप्त हुए ।
मुनिचन्द्र अपने गुरुके इस प्रकारके व्यवहारसे असन्तुष्ट हो गया । वह अपने खजनोंको बहकाता हुआ और सूरिपर प्रद्वेषभाव धारण करता हुआ पृथक् हो कर विचरने लगा । बादमें, सूत्रमात्रके शब्दोंको पकड कर और उसके विषयविभागको लक्ष्यमें न रख कर, लोगोंको अपनी इच्छानुसार उसका उपदेश देने लगा । यह परिभ्रमण करता हुआ एक समय साकेत नगरमें पहुंचा जहां उसके गुरुके प्रतिबोधित किये हुए बहुतसे भक्त श्रावकजन रहते थे। वह सागरचन्द्र राजकुमार भी वहींका निवासी था। वहां पर कितनेक ऐसे लोग भी थे जो पहले जैन शासनसे विरोधभाव रखते थे। उनको धर्मघोष सूरिने निम्न प्रकारका माध्यस्थमात्र सूचक धर्मोपदेश दे दे कर अपने धर्म के अनुरागी बनाये थे । वे सूरि अपने उपदेशमें श्रोताओंको कहा करते थे कि- 'देखो, जिसको इस लोकमें भी फलकी कुछ आकांक्षा होती है वह ठाकुर वगैरह राजपुरुषकी सेवा करता है । इसी तरह इसलोक और परलोकके फलकी इच्छा रखने वालेको किसी देवकी सेवा करनी चाहिये । पर देवता परोक्ष होनेसे उसके गुणोंका ज्ञान नहीं हो सकता-जैसे कोई घडा सामने न होनेसे उसके गुणोंका ज्ञान नहीं हो सकता । लेकिन यह
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