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जिनेश्वरीय प्रन्थों का विशेष विवेचन - कथाकोश प्रकरण। १०५ है कि जो किसी उद्देशपूर्वक स्पर्श करता है। हमारा उसके केशोंके साथ संस्पर्श होनेमें कोई उद्देश नहीं था । उद्देशपूर्वक स्पर्श होनेमें इस सूत्रका संबंध है; न कि अनाभोग यानि अनजानपनसे संघट्ट होने में । साधु भिक्षा लेने जब जाता है उस समय, यदि किसी श्राविकाका हाथ भिक्षा देते समय साधुको स्पर्श कर लेता है तो उससे कोई थोडा ही मूलगुण-नाश होता है । हां यदि उसमें किसी प्रकारका रागभाव कारणभूत होगा तो वह अवश्य दोषका निमित्त होगा । हमारा उसमें वैसा कोई भावदोष सर्वथा नहीं था । तथापि अनाभोगसे जो संघट्ट हो गया उसके दोषके निवारणके लिये हमने तप आदिका प्रायश्चित्त कर ही लिया है । इसलिये तुम्हारे इस कथनका कोई अर्थ नहीं है।' इत्यादि प्रकारका कुछ समाधायक उत्तर उस आचार्यसे देते नहीं बना और डर कर उसने उनसे कहा कि-'अरे भाई, आगममें जो उत्सर्गअपवाद मार्ग बतलाया गया है तुम उसे नहीं जानते । ऐसा कह कर उस आचार्यने एक अन्य गाथासूत्र सुनाया जिसका अर्थ यह है कि- "जिनेश्वर भगवान्ने न तो किसी प्रकारके कर्मके करनेकी अनुज्ञा दी है और न किसीका निषेध ही किया है । उनकी तो यही आज्ञा है कि जो भी कार्य किया जाय वह सत्यपूर्वक हो ।" आचार्य द्वारा पढे गये इस गाथासूत्रको सुन कर, जिस तरह मेघकी गर्जनासे मयूरोंको आनन्द होता है उसी तरह, उन सबके हृदयको निर्वृति हुई । वे सब अपने अपने पक्षमें दृढ हो गये। सावधाचार्यको भी उत्सूत्रका प्ररूपण करनेसे अनन्त-संसारका अशुभ बन्ध प्राप्त हुआ ।
इसलिये [ समुद्रदत्तसूरि उस विक्रमसार राजासे कहते हैं कि-] 'हे महाराज, जो अभव्य और दीर्घसंसारी होते हैं उनको जिनवचन यथार्थखरूपमें परिणत नहीं होता । जो आग्रही होते हैं वे अपने अपने अभिप्रायके पोषण निमित्त उस वचनके उतने अंशका उपयोग कर लेते हैं; शेष अंशको छोड देते हैं।'
सुन कर विक्रमसार राजाने कहा कि- 'भगवन् , आप जैसा कहते हैं वैसा ही है।' उस अन्ध पुरुषने भी कहा कि- 'यदि आप जानते हों कि मैं आराधना कर सकूँगा तो मुझे अनशन व्रत कराइये ।' सूरिने अपनी ज्ञानशक्तिसे उसकी योग्यता जान कर उसे अनशन कराया । वह उसका आराधन करके अपना आयुष्य पूर्ण कर स्वर्गलोकको प्राप्त हुआ। इसलिये यह गाथा कही गई है कि
अदिट्ठसमयसारा जिणवयणं अण्णहा परुवेंता।
धवलो व कुगइभायण तह चेव हवंति ते जीवा ।। इस गाथाका अर्थ इस कथाके आरंभमें दिया हुआ है । इस प्रकार यह धवलकी कथा समाप्त होती है।
इस प्रकार, इस प्रन्थमें जिनेश्वर सूरिने जो कथानक आलेखित किये हैं वे अपने अपने ढंगसे विशिष्ट वस्तुखरूप और भावबोधके वर्णनात्मक हो कर तत्कालीन सामाजिक और सांस्कृतिक परिस्थितिके विशेष निर्देशक हैं धवलके इस कथानकके पढनेसे ज्ञात होता है कि इस कथानकके गुम्फन करनेमें मुख्य उद्देश जिनेश्वर सूरिका, यह बात बतानेका रहा है, कि जैन यतिवर्गमें किस तरह चैत्यवास रूपी संस्थाकी उत्पत्ति हुई और किस तरह उस प्राचीन काल में जैन साधुओंका एक वर्ग अपने आचारमें शिथिल हो कर, अनियत रूपसे सदा-सर्वत्र परिभ्रमण करते रहनेकी-अर्थात् वनोंमें और निर्जन प्रदेशोंमें इधर उधर घूमते फिरते रहने खरूप परिव्राजक धर्मका पालन करनेकी- अपेक्षा वसतिनिवासी हो कर रहनेकी अभिलाषासे जैन मन्दिरों की सृष्टिका निर्माण करने-करानेमें प्रवृत्त हुआ । इस कथानकमें जो
क. प्र. १४
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