________________
जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन-कथाकोश प्रकरण । दूसरे दिन सूर्य निकलने पर राजा वापस नगरमें आया । वे वणिक्पुत्र भी धूलसे भरे हुए वैसे ही शरीरके साथ राजाके पीछे पीछे चलनेवाले लोगोंके अन्दर सम्मीलित हो कर, राजाको जिस तरह ज्ञात न हो सके उस तरह, उसके साथ हो लिये । किसी खास जगह पर रुक कर राजाने फिर अपने नोकरोंसे पूछा कि- 'कल रातको शहरमें कोई रह तो नहीं गया था ? किसीने मेरी आज्ञाका उल्लंघन तो नहीं किया था ?'
जैसा कि संसारमें देखा जाता है - कई ऐसे दुर्जन भी होते हैं जो दूसरोंको हेरान करनेमें आनन्द मानते हैं । इससे किसीने राजाको कहा कि- 'अमुक बनियेके पुत्र बहार नहीं आये थे। तब वे राजाके आगे आ कर खडे हुए और बोले कि 'महाराज, हम तो आपके साथ ही अभी शहरमें दाखिल हो रहे हैं। यह कोई झूठ कह रहा है।' तब उस दुर्जनने कहा- 'अरे तुम बहार कहां आये थे ? अभी तो राजाके शहरमें प्रवेश करने के वक्त आ कर मिले हो । यदि ऐसा नहीं है तो फिर पण करो।' सुन कर वे सब चुप हो गये । राजाने रुष्ट हो कर उनको प्राणदंड देनेकी आज्ञा दे दी । इस बातको सुन कर नगरके लोगोंके साथ सब महाजन एकत्र हुआ। उसने उनको प्राणदण्डसे मुक्त करनेकी प्रार्थना की, परंतु राजाने नहीं सुनी । तब उन लडकोंके बापने राजासे कहा-'महाराज ! ऐसा मत कीजिये, इनको छोड दीजिये और मेरा जो सारा घरसार है उसे ले लीजिये।' पर राजाने नहीं माना। फिर वह बोला- 'अपराधके दण्डखरूप किसी एक लडकेका वध करके आप अपने कोपका प्रशमन करें, और दूसरे पांचको मुक्त करनेकी कृपा करें।' इस तरह उसने फिर चारके, तीनके और दो पुत्रोंके छोडेनेकी प्रार्थना की । पर राजा कुछ नहीं सुनना चाहता है । तब वह करुणविलाप करता हुआ उसके पैरोंमें चिपक गया और बोला कि'महाराज, मेरा ऐसा सर्वथा कुलनाश न करिये । एकको तो किसी तरह छोडिये।' इसपर राजाने उसके ज्येष्ठ पुत्रको मुक्त किया । इत्यादि ।
आचार्य इस 'वणिकपुत्र दृष्टान्त'का भावार्थ बताते हुए कहते हैं कि- इसमें राजाके स्थान पर श्रावकको समझना चाहिये । पुत्रोंके स्थान पर षटकाय जीव और पिताके स्थानके तुल्य साधु लेना चाहिये । जैसे पिताको अपने किसी भी पुत्रका वध इष्ट नहीं है, इसलिये वह उस वधकार्यमें इच्छापूर्वक अपनी अनुमति नहीं देता है । इसीतरह साधुओंकी भी वधकार्यमें कोई अनुमति नहीं समझना चाहिये । यतिजन हैं सो पहले तो साधुधर्मका ही उपदेश करते हैं । उसके ग्रहण करनेमें जो असमर्थ होते हैं उनके लिये पौषध, सामायिक आदि व्रतोंका उपदेश देते हैं । उनके करनेमें भी जो असमर्थ होते हैं उनके लिये जीवहिंसा भी केवल शुभ-अध्यवसायके निमित्तसे हो तो ठीक है, इसलिये द्रव्यस्तवरूप जिनभवन आदि करवानेका उपदेश करते हैं । क्यों कि उससे भी विशुद्ध सम्यक्त्व आदि गुणोंका लाभ होता है, और क्रमसे मोक्षप्राप्ति होती है । जिनमन्दिरमें जनबिंबकी पूजा, स्नात्र आदि प्रवृत्तिको देख कर भव्यजनोंको सम्यक्त्व आदि गुणोंका लाभ होता है । वे भी उससे प्रतिबुद्ध हो कर फिर विरति ग्रहण करते हैं; जिससे जीवोंकी रक्षा होती है । जो जीव मोक्ष जाते हैं वे संसारके अस्तित्वपर्यन्तके सब जीवोंको अभयदान देते हैं । इसलिये उस निमित्त किया गया जीववध उनको फल नहीं देता । अतएव वह जीवघात भी शुभ-अध्यवसायका निमित्त होनेसे ख-पर दोनोंको मोक्षका हेतु होता है । और यदि सर्वप्रथम ही जिनमन्दिरादिका उपदेश दिया जाता है तो उसमें जीवनिकायके वधकी स्पष्ट अनुमति होगी और उससे अशुभ बन्ध होगा। इसलिये महाराज ! उस कालके साधुओंने जो जिन मन्दिरादि बनानेका उपदेश दिया था वह विधिपूर्वक नहीं दिया गया था। अतः शास्त्रोंमें यह कहा है कि संयममें शिथिलयोगी बन जानेसे उन्होंने अपने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org