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जिनेश्वर सूरिके चरितका सार। कि तुम्हारे जो दो पुत्र हैं उनमेंसे एककी भिक्षा हमें दे दो। हमें सूचित हो रहा है कि ये तुम्हारे पुत्र बडे भाग्यशाली होंगे। यदि इनमेंसे एक हमारा शिष्य होगा तो वह सद्धर्मका बडा प्रभावक बनेगा और हजारोंका कल्याण करनेवाला होगा। __ सूरिका यह कथन सुन कर ब्राह्मण विचारमें पड़ गया । उसको यह बात बिल्कुल रुचिकर नहीं लगी। अपने पुत्रोंसे यह बात कहनेकी उसकी इच्छा नहीं हुई । उसने वह सारा निधि अपने पुत्रोंको सौंप दिया लेकिन उसके मनमें अपने वचनका खयाल रह रह कर कठने लगा। कुछ दिन बाद वह बीमार पडा और आखिर दशामें आ पहुंचा । मरते समय उसने अपने मनका वह शल्य पुत्रोंके आगे प्रकट कर दिया और कहा कि इसमें तुमको जैसा उचित लगे वैसा करना । उसके इन दो पुत्रोंमेंसे बडेका नाम था धनपाल और छोटेका शोभन । पिताका मृत्युकृत्य करलेने बाद, छोटे शोभनने पिताकी प्रतिज्ञाका पालन करना निश्चय किया और जिनेश्वर सूरिके पास जा कर उनका शिष्य बननेका और उस तरह अपने पिताके उक्त वचनका ऋण चुकानेका भाव प्रकट किया । __ सूरिने उससे कहा 'भाई ! हमारा धर्म हठका नहीं है। इस प्रकार अनिच्छासे किया हुआ धर्मकर्म फलदायक नहीं होता । अपने मनकी उत्कट भावनासे प्रेरित हो कर जो कर्म किया जाता है वह सफल होता है । इसलिये तुम्हारे मनमें यदि हमारी दीक्षा लेनेकी इच्छा है तो पहले तुम जैन तत्त्वोंको पढो सुनो, उनका रहस्यार्थ समझो और फिर यदि तुम्हारी उन पर श्रद्धा बैठे तो दीक्षा ग्रहण करो; अन्यथा अपने घर जाओ। आचार्यके ऐसे हितकर वचन सुन कर शोभनका मन अधिक शान्त हुआ और वह उनके पास रह कर जैन शास्त्रोंका मनन करने लगा। जब उसका मन अच्छी तरह दृढ हो गया तब उसको आचार्यने दीक्षा दी। शोभन मुनिके नामसे आगे जा कर वह बडे विद्वान् और संयमी महापुरुषके रूपमें प्रख्यात हुआ।
उसका छोटा भाई धनपाल, जो बडा भारी महाकवि था, भोजराजाकी सभाका प्रधान पण्डित बना। अपने पिताके पास इस प्रकार छलसे आधी संपत्तिका हिस्सा मांगने और फिर उसके निमित्त अपनेमेंसे एक भाईको ही अपना शिष्य बना लेनेके कारण, धनपालको जैन साधुओं पर बडा क्रोध उत्पन्न हो गया। उसने भोजराजाको कह कर धारा नगरीमें जैन साधुओंका आना-जाना ही बन्ध करा दिया ।
इस प्रकार कितनेक वर्ष बीत जाने पर, जब शोभन मुनि एक अच्छे विद्वान् साधुपुरुषकी प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके तब उनको साथ ले कर जिनेश्वर सूरि धारा नगरीमें पहुंचे।
गुरुकी आज्ञासे शोभन मुनि अपने भाईके घर पर गये और उससे मिले । धनपाल अपने भाईको इस प्रकार बहुत वर्षोबाद देख कर स्नेह-पुलकित हुआ ।
भाइके नेहके कारण वह फिर जिनेश्वर सूरिके पास भी आने-जाने लगा। धीरे धीरे सूरिने उसको जैन धर्मके उदात्त तत्त्वोंका परिज्ञान कराया और इस प्रकार उसे अपने धर्मका अभिमुख बनाया । फिर तो धनपाल भी जैनधर्मके अहिंसा-सिद्धान्तका दृढ उपासक बन कर उन्हीं जिनेश्वर सूरिका परम भक्त बन गया।
बस यहीं तक इस कथामें जिनेश्वर सूरिका वर्णन है । इसके आगे फिर धनपालकी वह सारी कथा है जो प्रभावकचरित्र, प्रबन्धचिन्तामणि आदिमें मिलती है । इस कथाका यहां पर वर्णन करना आवश्यक नहीं।
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