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कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । __ पिछले समयके जैन इतिहासका सिंहावलोकन करने पर, ज्ञात होता है कि जिनेश्वर सूरिके इस उपदेशको उनके अनुयायी श्रावकगणने बडी अच्छी श्रद्धाके साथ ग्रहण किया और इसको कार्यान्वित करनेमें बहुत ही उत्साह बतलाया । जिनेश्वर सूरिकी शिष्यपरंपराके अनुयायी होनेवाले श्रावकोंने पिछले सात सौ-आठ सौ वर्षों में, हजारों ही जैन मन्दिर बनवाये और लाखों जैन मूर्तियां तैयार करवाई इसी तरह लाखों ही पोथियां (प्रतियां) जैन अजैन शास्त्रों एवं ग्रंथोंकी लिखवा लिखवा कर साधु-यति जनोंको समर्पित की और उनके संग्रहके सेंकडों ग्रन्थभण्डार स्थापित किये-करवाये ।
जिनेश्वर सूरिने इस ग्रंथमें आगे चल कर यह भी एक बात कही है कि अनुकंपाशील व्यक्तिको चाणक्य, पंचतंत्र, कामंदक आदि राजनीति शास्त्रोंका उपदेश देना-लेना नहीं चाहिये । क्यों कि इनमें अनेक प्रकारके छल, कपट, प्रपंच, मित्रविरोध, कूटयुद्ध आदि प्रयोगोंका वर्णन किया गया है जिससे मनुष्य हिंसाकार्यमें प्रवृत्त होनेको उत्तेजित होता है । इसलिये इन हिंसा-उत्तेजक ग्रन्थोंका व्याख्यान करना उचित नहीं है।
इसी तरह ज्योतिष, अर्धकांड, मनुष्य, हस्ति और अश्व चिकित्साविषयक वैद्यक, धातुवाद और धनुर्वेद आदि विषयक ग्रन्थोंका व्याख्यान करना भी उचित नहीं है । क्यों कि इन ग्रन्थोंमें अनेक प्रकारके जीव-जन्तु-विनाशक उपायोंका विवेचन किया हुआ है। सर्व प्रकारके प्राणियोंके प्रति अनुकंपाभाव रखनेवाले सम्यक्त्ववान् आत्माको किसी भी प्रकारके प्राणीके नाशका कोई विचार नहीं प्रदर्शित करना चाहिये।
राजकीय, सामाजिक एवं धार्मिक दृष्टिकोणसे अहिंसा तत्त्वके विवेचकों और प्रतिपादकोंके लिये जिनेश्वर सूरिका यह कथन अवश्य विचारणीय और विवेचनीय है । __इस ग्रन्थके आस्तिक्य लिंगवर्णन नामक ५ वें प्रकरणमें, कुछ दार्शनिक विचारोंकी मीमांसा की गई है जिनमें बौद्ध, सांख्य, मीमांसा, न्याय और वेदान्त विषयक सिद्धान्तोंकी आलोचना-प्रत्यालोचना मुख्य है । इनमें जैन दृष्टिसे आत्मवाद, सर्वज्ञवाद, ईश्वरकर्तृत्ववाद, मुक्तिवाद आदि मतोंका स्थापन अथवा निरसन किया गया है । जैन दर्शनके सिद्धान्त ही आत्माको मुक्ति प्राप्त करानेवाले हैं ऐसी भावना जिसकी हो वह सम्यग्दृष्टि आत्माका आस्तिक्य नामक लक्षण है।
संस्कृत विवरणजैसा कि ऊपर सूचित किया है मूलरूपसे तो यह प्रकरण १०१ गाथाका एक छोटासा ही ग्रन्थ है। परंतु इसपर व्याख्यारूपसे जिनपति सूरिने जो संस्कृतमें विस्तृत विवरण लिखा है उसका ग्रन्थ परिमाण कोई ७-८ हजार श्लोक जितना होगा । इस विवरणमें व्याख्याताने मूल ग्रन्थके विचारोंको खूब अच्छी तरह विस्तृत रूपमें विवेचित किये हैं और उनके समर्थनमें जगह जगह दूसरे शास्त्रोंके प्रमाणोंको उद्धृत कर ग्रन्थोक्त बातोंकी पुष्टि करनेका यथेष्ट प्रयत्न किया है । इस विवरणमें आस्तिक्य नामक लिंगके विवेचनमें भिन्न भिन्न दर्शनोंके उक्त आत्मवादादि सिद्धान्तोंकी जो आलोचना-प्रत्यालोचना की है वह इतनी विस्तृत और प्रौढ है कि उसे दार्शनिक चर्चाका एक स्वतंत्र एवं सुन्दर संदर्भ-ग्रन्थ कहा जा सकता है। १ चाणक-पंचतंतय. कामंदयमाइरायनीइओ । वक्खाणंतो जीवाणं न खलु अणुकंपओ होइ ॥ ७१ तह जोइसग्घकंडाइ विजय मणुयतुरयहत्थीणं । तहा हेमजुत्तिमिसुकलमक्खायंतो हणे जीवे ॥ ७२
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