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जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन ।
(५) प्रमालक्ष्म अथवा प्रमालक्षण । जिनेश्वर सूरिके रचे हुए प्रन्थोंमें यह एक खतंत्र और मौलिक रचना है । मूल संस्कृत श्लोकबद्ध है और इसपर 'खोपज्ञ' ऐसी विस्तृत संस्कृत गद्य व्याख्या है । मूलके सब मिलाकर कोई ४०५ श्लोक हैं। जैन न्यायशास्त्रके आद्य प्रतिष्ठापक आचार्य सिद्धसेन दिवाकरका बनाया हुआ 'न्यायावतार सूत्र' नामका ३२ श्लोकोंवाला एक छोटासा ग्रन्थ है जो जैन साहित्यमें बहुत ही प्रसिद्ध एवं प्रमाणभूत शास्त्र है । जैन न्यायशास्त्रका यही आदि ग्रन्थ माना जाता है । इसका आद्यश्लोक इस प्रकार है
प्रमाणं खपरावभासि ज्ञानं बाधविवर्जितम् ।
प्रत्यक्षं च परोक्षं च द्विधा मेयविनिश्चयात् ॥ • समग्र ग्रंथका यह आदि 'शास्त्रार्थसंग्रह'रूप श्लोक है। इसमें कहे गये पदार्थोंका विस्तृत और विशद विवेचन करनेकी दृष्टिसे जिनेश्वर सूरिने वार्तिकके रूपमें ४०० श्लोक बनाये और फिर उनपर गद्यमें विशेष विवेचनात्मक वृत्ति बनाई । यह वृत्ति अनुमानतः कोई ४ हजार श्लोकप्रमाण जितनी बड़ी है । __इस .ग्रन्थमें जिनेश्वर सूरिने जैनदर्शनसम्मत प्रमाण तत्त्वकी विस्तारसे चर्चा की है और प्रमाण ज्ञानके लक्षणका खरूप प्रदर्शित किया है । इसीलिये इसका नाम 'प्रमालक्ष्म' अथवा 'प्रमालक्षण' ऐसा रखा गया है। ___ इस ग्रन्थकी रचना करनेमें मुख्य विचार जो प्रेरक हुआ है, उसका उल्लेख, ग्रन्थके अन्तमें जिनेश्वर सूरिने खयं किया है । उसका भावार्थ यह है कि - जिनेश्वर सूरिके समयतकमें, श्वेताम्बर संप्रदायके किसी विद्वान्ने कोई ऐसा ग्रन्थ नहीं बनाया था जिसमें जैनसम्मत प्रमाण ज्ञानका- अर्थात् प्रत्यक्ष, परोक्ष आदि प्रमाणोंका- लक्षण और खरूप स्पष्ट किया गया हो। इनके पहले सिद्धसेन, मल्लवादी, हरिभद्र और अभयदेव जैसे बहुत समर्थ और प्रखर ऐसे जो जैन श्वेतांबर दार्शनिक आचार्य हो गये हैं और जिन्होंने दर्शनशास्त्र एवं प्रमाणशास्त्रके साथ संबंध रखनेवाले ऐसे अनेक महत्त्वपूर्ण और प्रौढ कोटिके ग्रन्थोंकी जो रचनाएं की हैं, उनमें प्रतिपक्षी दार्शनिकोंके किये गये प्रमाणोंके लक्षणोंके खण्डनद्वारा ही खकीय सिद्वान्तोंका और मन्तव्योंका समर्थन किया गया है । परन्तु वकीय मन्तव्यानुसार प्रमाणके लक्षण आदि प्रकट रूपसे उन ग्रंथोंमें नहीं बताये गये हैं । उन आचार्योंका यह खयाल रहा कि प्रतिपक्षीके किये गये लक्षणोंको यदि हम दूषित सिद्ध कर सकते हैं और उस प्रकारसे उनके सिद्धान्तोंका खण्डन कर सकते हैं, तो फिर हमें अपने नये लक्षणोंका उद्भावन करनेकी आवश्यकता ही क्या है । और यदि अन्य दार्शनिकोंका बताया हुआ लक्षण दोषशून्य है, तो फिर हमें उसका स्वीकार करनेमें आपत्ति भी क्यों होनी चाहिये? क्यों कि जो प्रमाण वास्तवमें निर्दोष अर्थात् सत्य है वह सर्वत्र और सर्वदा सत्य ही रहेगा; उसको दोषदुष्ट अथवा असत्य कौन सिद्ध कर सकता है ? । और जो इस प्रकार वास्तविक सत्य प्रमाण है वही जैनसम्मत सिद्धान्त है । इस उदार विचारसरणिके कारण श्वेतांबर संप्रदायके पूर्वाचार्य, बौद्ध और ब्राह्मण न्यायके ग्रन्थोंका पठन-पाठन भी उसी उदार दृष्टिसे करते रहते थे और उनके अध्ययन-मननसे अपना न्यायशास्त्रविषयक ज्ञान परिपुष्ट और परिवर्द्धित किया करते थे। वे न केवल अन्य दार्शनिक ग्रन्थोंका अध्ययन-मनन कर के ही सन्तुष्ट रहते थे परंतु वैसे कुछ ग्रन्थोंपर तो उन्होंने स्वयं टीका-टिप्पण आदि भी बनाये और उनका प्रचार एवं महत्त्व भी बढाया है । दिग्नागाचार्य विरचित 'न्यायप्रवेश' सूत्र पर हरिभद्रसूरिकृत टीका - और 'धर्मेतरवृत्ति' पर मल्लवादीकृत टिप्पण तथा भासर्वज्ञकृत 'न्यायसार' पर जयसिंहसूरिकृत विवृति आदि कुछ विशिष्ट कृतियां, इसके उदाहरणखरूप, आज भी विद्यमान हैं।
क० प्र०८
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