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कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । इसी तरह जो पार्श्वस्थ आदि साधु हैं उनकी कुदेशनासे विमोहित हो कर जो सुविहित साधुओंको बाधा करने-करानेवाले होते हैं वे भी वैसे ही महामिथ्यात्वी हैं। __जो लौकिक ज्ञाति-जातिके पक्षपाती हो कर साधुओंको दानादि देनेमें प्रवृत्त होते हैं किं तु गुणागुणकी विचारणासे नहीं, वे भी वैसे ही विपर्यासभाव ( मिथ्यात्व )के भाजन होते हैं । __ क्यों कि पूजाके योग्य तो गुण ही होते हैं । उन्हींको लक्ष्य कर दानादिमें प्रवृत्ति होनी चाहिये । उसीके निमित्तको ले कर कार्य करना चाहिये, किसी ज्ञाति-जातिसे क्या मतलब है । क्यों कि स्वजाति और ज्ञातिमें भी धर्महीन होते हैं । अतः उनको दान देनेमें कुछ थोडा ही फल होता है ? जिनमें गुण होता है और उसीको निमित्त करके जो दान दिया जाता है वही फलदायक है । बाकी खजाति और खजनादिके मोहसे जो दानादिमें प्रवृत्ति होती है वह तो विपर्यास ( मिथ्यात्व )ही है। ___ इस विपर्यासरूप मिथ्यात्ववाला चाहे जितना शास्त्रज्ञानका धारक होने पर भी वह अज्ञानी ही है । जो विपरीतमति होता है उसका ज्ञान कार्यसाधक नहीं बनता । अतः वह उसका अज्ञान ही है । __ और इस प्रकार जीवमें विपर्यासभावके होने पर, चाहे जैसी दुष्कर तपश्चरणवाली क्रियाएं की जाएं पर वे मोक्षसाधक नहीं बनतीं । क्यों कि वह बहारसे प्राणीहिंसा और मृषावादका विवर्जन ( अर्थात् अहिंसा और सत्यका पालन ) करता हुआ भी अंतरसे अविरत ( विरतिशून्य ) ही होता है।
मनुष्यको पंचम गुणस्थान की प्राप्ति होने पर देशविरति और छटे गुणस्थान की प्राप्ति होने पर सर्वविरतिका उदय होता है । न कि प्रथम गुणस्थानवर्तीको । प्रथम गुणस्थानस्थित प्राणीको अनन्तानुबन्धि आदि सोला ही प्रकारके कषायोंका बन्धन और उदीरण होता रहता है । उसके निमित्तसे दीर्घस्थितिवाली
और तीव्र-अनुभागवाली अशुभ प्रकृतियोंका बन्ध होता है । उनके उदय होने पर प्राणीका मनुष्य, नारक, तिर्यक्त्व, कुमनुष्यत्व, कुदेवत्वकी गतिरूप संसारमें परिभ्रमण होता है और उसके कारण वह अनेक दुःखोंका भागी होता है । इसलिये, हे महानुभावो, सम्यक्त्वपूर्वक चारित्रमें यत्नशील होना चाहिये । उसीका बहुमान करना चाहिये । इत्यादि ।
इस प्रकारका धर्मोपदेश चलने पर, बीचमें उस धवलने आचार्यसे कहा कि- 'महाराज, आपका ऐसा कहना ठीक नहीं है कि - 'मैंने अथवा मेरे पूर्वजोंने यह जिनमन्दिरादि बनवाये हैं' ऐसा समझकर इनमें पूजादिके लिये प्रवृत्त होना विपर्यास है । हमको यह विचार श्रद्धेय नहीं लगता । यदि जिनभवन, जिनमूर्ति, महोत्सव, पूजादिका करना विपर्यास है तो फिर सम्यक्त्वका कारण तो कोई रहा ही नहीं ।' ___ आचार्यने कहा- 'भद्रमुख, ऐसी प्रवृत्ति परमार्थसे जिनालंबनवाली नहीं है । क्यों कि शास्त्रों में कहा है कि
जिनेश्वरोंकी आज्ञासे बाह्य ऐसी सांप्रदायिक सर्व प्रवृत्ति संसारभ्रमणका फल देनेवाली होती है । यद्यपि वह तीर्थंकरको उद्देश करके की जाती है, पर वास्तवमें - तत्त्वकी दृष्टिसे वह वैसे उद्देशवाली नहीं होती । इत्यादि । तथा ऐसा भी न समझना चाहिये कि बडे-बुड़े लोग ऐसा करते थे, तो क्या वे सब अजान थे ? । क्यों कि कहा है कि- "लोकोंमें जो गुरुतर माना जाता है वह भगवान् ( जिनेश्वर )को भी इष्ट ही होता है ऐसा नहीं है।"
इसके बीचमें भीमने कहा- 'धर्म और अधर्म यह तो सब लोकव्यवहारके आधार पर अवलंबित है । किसी भी धर्मार्थाने प्रत्यक्षादि ज्ञानसे जान कर कोई अनिन्दित मार्ग का आचरण नहीं किया है । धर्मार्थी हो कर ही लोक दानादिमें प्रवृत्त होते हैं।'
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