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कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर रि। श्वेतांबर संप्रदायके विद्वानोंकी इस प्रकारकी नीति-रीतिके सम्मुख, दिगम्बर संप्रदायके विद्वानोंकी विचारसरणि कुछ ठेठसे ही भिन्न प्रकारकी रही है । अन्य सांप्रदायिक साहित्यके अध्ययन-मननके विषयमें वे उतने उदार विचारके नहीं रहे मालूम देते । अपने संप्रदायके आचार्यों द्वारा बनाये गये शास्त्रों और ग्रन्थोंके सिवा अन्य सांप्रदायिक ग्रन्थों- शास्त्रोंका पठन-पाठन करनेकी ओर उनका समादरभाव प्रायः नहींसा रहा है । यहां तक कि श्वेताम्बराचार्यों द्वारा रचित जैन साहित्यका भी वे प्रायः खाध्याय करना पसन्द नहीं करते रहे । इसलिये प्रारंभहीसे दिगम्बर आचार्योंने आगम, पुराण, चरित, कथा, काव्य, व्याकरण और न्याय आदि विषयक अपने संप्रदायके उपयुक्त साहित्यका स्वतंत्र सर्जन करनेका प्रयत्न किया है । वैसे तो नेताम्बर आचार्योंने भी कथा, चरित और अन्य धार्मिक एवं तात्त्विक विषयके ग्रन्थोंकी खतंत्र रचनाएं बहुत प्राचीन समयसे ही करनी प्रारंभ कर दी थी और इस विषयका तो श्वेतांबर साहित्य, दिगम्बरीय साहित्यसे अपेक्षाकृत अधिक प्राचीन और अधिक समृद्ध भी है । तथापि व्याकरण और प्रमाणशास्त्र, जो सर्वसामान्य ज्ञानका विषय है और सभी मतों - दर्शनोंको समान रूपसे उपादेय है उस विषयके अपने खतंत्र ग्रन्थोंकी रचना करने तरफ श्वेताम्बर आचार्योंका उस समयतक कोई खास लक्ष्य नहीं गया था। दिगम्बर आचार्य पूज्यपाद देवनन्दीने विक्रमकी ६ ठी ७ वीं शताब्दीके आसपास पाणिनि, इन्द्र, चान्द्र आदि व्याकरण प्रन्योंका आलोडन कर, 'जैनेन्द्रव्याकरण' नामक स्वतंत्र ग्रन्थकी रचना की और फिर उस संप्रदायके अनुयायियोंमें उसीके पठन-पाठनका खास प्रचार होता रहा । उसके बाद ८ वी ९ वीं शताब्दीके मध्यमें, शाकटायनाचार्य नामक यापनीयसंघके आचार्यने 'शाकटायन' नामका एक और खतंत्र विस्तृत व्याकरण ग्रन्थ बनाया । इसीतरह भट्ट अकलंक देव, विद्यानन्दी, माणिक्यनन्दी आदि आचायोंने जैनसिद्धान्तसम्मत प्रमाण तत्त्वके लक्षण आदिका निरूपण करनेवाले छोटे बड़े कई तर्कशास्त्रीय प्रन्थोंकी रचनाएं की जिससे उक्त संप्रदायके अभ्यासियोंमें उन उन कृतियोंके पठन-पठनका खूब प्रचार बढ़ा । इसके मुकाबलेमें श्वेतांबर संप्रदायमें जिनेश्वर सूरिके प्रादुर्भावके समय तक- अर्थात् विक्रमकी ११ वीं शताब्दीके मध्यकाल तक- श्वेतांबर आचार्य द्वारा बनाया गया कोई स्वतंत्र व्याकरणविषयक ग्रन्थ अथवा वैसा ही कोई प्रमाणप्रतिपादक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं था। श्वेतांबर संप्रदायमें, जैसा कि ऊपर सूचित किया है, बौद्ध एवं ब्राह्मण संप्रदाय रचित लक्षण ग्रन्थोंका ही विशेष पठन-पाठन प्रचलित था। इसलिये सांप्रदायिक प्रतिस्पर्धाके संघर्षप्रसंगमें, दिगंबर संप्रदायकी ओरसे श्वेतांबर संप्रदायके विषयमें, शायद ऐसे आक्षेप किये जाते होंगे कि-- श्वेतांबरोंके अपने निजी कोई न्याय, व्याकरणादिके लक्षणप्रतिपादक ग्रन्थ नहीं हैं अतएव इनका संप्रदाय पुरातन न होकर नवोत्पन्न है--ये पर लक्ष्मोपजीवी हैं - इनके पास अपना मौलिक सर्जन नहीं है - इत्यादि । इस प्रकारके कुछ आक्षेपोंसे प्रेरित होकर जिनेश्वर सूरिके गुरुमाता बुद्धिसागराचार्यने एक नया स्वतंत्र व्याकरण ग्रन्थ बनाया और जिनेश्वर सूरिने न्यायशास्त्रविषयक प्रस्तावित 'प्रमालक्ष्म' ग्रन्थ बनाया। इस बातका उल्लेख वयं ग्रन्थकारने निम्नलिखित श्लोकोंमें किया है
प्रमाणवादिनां तस्माद्वाद एव विचारणा । साधनाभासमन्यैस्तु वादिभिरभियुज्यते ॥ ४०० तेनावधीरणाप्यत्र महतां लक्ष्मशासने । परपक्षनिरासो हि साधनाभासतोऽप्यसौ ॥ ४०१
तैरवधीरिते यत्तु प्रवृत्तिरावयोरिह । तत्र दुर्जनवाक्यानि प्रवृत्तेः सन्निबन्धनम् ॥ ४०३ शब्दलक्ष्म प्रमालक्ष्म यदेतेषां न विद्यते । नादिमन्तस्ततो ह्येते परलक्ष्मोपजीविनः ॥ ४०४ श्रीबुद्धिसागराचार्यैर्वृत्ताकरणं कृतम् । अस्माभिस्तु प्रमालक्ष्म वृद्धिमायातु सांप्रतम् ॥ ४०५
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