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कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । ___ सुन कर यक्षके मनमें संवेगभाव हो आया । और वह बोला- 'भगवन् , तुम फिर अपना घृतपात्र रखो जिससे मैं तुमको वैसे ही घीका दान करूं और स्वर्गका आयुष्य उपार्जन करूं ।' इस पर साधु सुदत्तने कहा - 'भद्र, घीके देनेसे देवताका आयुष्य नहीं प्राप्त होता, किं तु उस प्रकारके उच्च परिणामसे होता है । और वैसा उच्च परिणाम तो निरीह मनुष्यको संभवित होता है । बाकी तो यह सब क्रय-विक्रय करने जैसा व्यापार होगा। ___ यक्षने पूछा- 'भगवन् , आप कहां रहते हैं ?' साधु ने कहा - 'अमुक उद्यान में ।' तब यक्षने कहा'यदि आपका उपरोध न हो तो मैं वहां आऊंगा।' इस पर साधुने कहा- 'शुभयोगका आराधन करके कर्मक्षय करनेवाले भव्य जीवोंको साधु कभी मनाई नहीं करते । और न कभी ईर्यापथिक दोषकी संभावनासे ऐसा कहते हैं कि आना । इसलिये हम तुमको क्या कहें ? । बस इतना ही कह सकते हैं कि हमारा कोई उपरोध नहीं है ।' ऐसा कह कर साधु चला गया । यक्ष फिर उचित समय पर साधुके पास गया । वन्दना करके बैठा और कहने लगा कि - 'महाराज, उस समय घीको उस प्रकार दुलता हुआ देख कर मैंने जो ऐसा सोचा था कि 'अहो यह साधु प्रमत्त है' तो क्या मैंने वह दुष्ट चिन्तन किया था ?'
साधु सुदत्त - 'हाँ, श्रमणोपासक ! नहीं तो कैसे तूं अच्युत जैसे खर्गके आयुष्यबन्धसे पतित होता ? और जो तैंने उल्लंठ वचन कहा वह तो दुष्टचिंतित ही था । क्यों कि वह प्रतिनिविष्ट चेष्टित था । प्रतिनिवेश प्रदोषरूप होता है और प्रदोषभाव तो वेषधारी पर भी नहीं करना चाहिये । क्यों कि वैसा भाव धारण करनेवालेको जन्मांतरमें भी वैसा ही प्रदोषभाव पैदा हो आता है और इस प्रकार वैरभावकी परंपरा चलती रहती है।'
यक्ष- 'भगवन् , क्या प्रत्यक्ष दोषदर्शन होने पर भी विपरिणाम उत्पन्न नहीं होता ?' साधु - 'किसीको होता है और किसीको नहीं ।' यक्ष - इसमें अच्छा कौन है ?' । साधु-'जिसको विपरिणाम नहीं होता । लिंगमात्र धारण करनेवाले पर भी विपरिणाम नहीं होने देना चाहिये । केवल वस्तुखभावका विचार करना चाहिये । विना प्रदुष्टभावके विपरिणाम उत्पन्न
नहीं होता।
यक्ष - 'तो क्या भगवन् , मेरा कृत्य आलोचनाके योग्य है ?' साधु- 'अवश्य ।
यक्ष - 'तो फिर मुझे प्रायश्चित्त दीजिये ।' फिर साधुने उसको प्रायश्चित्त दिया जिसका स्वीकार कर वह अपने घर गया।
अतः ऐसा न करना चाहिये यह इस कथानकका उपदेशात्मक तात्पर्य है ।
वस्त्रदान पर धनदेवकी कथा।। ऐसी ही एक मनोरंजनात्मक कथा वस्त्रदानको लक्ष्य करके कही गई है सो भी पढिये । किसी एक नगरमें धनदेव नामक एक धनाढ्य गृहस्थ रहता था जो बौद्ध मतका उपासक था । जैन साधुओंके पास वह कभी नहीं जाता था। उस गाँवमें एक दफह धर्मशील नामक जैन आचार्य आ पहुंचे।
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