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कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि। जाते हैं। ऐसे कारोबारवालेके वहां साधुओंको कोई वस्तु लेनेमें कैसे कोई अनेषणीय दोष लग सकता है। इसलिये भाईयो, आज मैं तुम्हारे सामने यह अभिग्रह लेता हूं कि जितने भी साधु इस चंपानगरीमें विहार करते हुए आयेंगे उन सबको मैं घी, गुड, वस्त्र और कंबल, जितनी मात्रामें आवश्यक होंगे उतने
दूंगा, तब तक कि वे अपनी अनिच्छा प्रकट नहीं करेंगे। इस प्रकारका अभिग्रह करते हुए उसने अपने विशुद्ध परिणामोंके कारण वैमानिक जातीय उच्च कोटिके देवभवका आयुष्य कर्म उपार्जित किया। ऐसी प्रतिज्ञा ले कर वह फिर प्रयत्नपूर्वक साधुओंके आगमनकी प्रतीक्षा करता रहा परंतु उन दिनों वहां कोई साधु आये गये नहीं और उसके अभिग्रह की सफलता हुई नहीं। इसी बीचमें फिर उसकी मृत्यु हो गई । अपने शुभ परिणामके कारण मर कर वह ईशान देवलोकमें इन्द्रत रूपमें उत्पन्न हुआ। वहांसे च्युत होने पर महाविदेहमें जन्म ले कर मोक्ष प्राप्त करेगा।'
इस कथानकगत वर्णनसे पाठकोंको इसका कुछ परिज्ञान भी होगा कि उस समयमें जैन श्रावकोंके बीचमें सामान्य चर्चाके कैसे कैसे विषय होते थे और किस तरह वे परस्पर विचार-विनिमय किया करते थे। इस कथासे यह भी ज्ञात होगा कि उस समयमें भी श्रावकोंमें ऐसा एक वर्ग था, जो वर्तमानकी तरह, साधुओंके आचार-विचारोंके विषयमें शंका-कुशंकाएं किये करता था तथा शास्त्रोक्त आचारके पालनके वारेमें सन्देहशील रहता था । साधुओंके धर्मोपदेशका प्रधान लक्ष्य भी या तो शास्त्रों की चित्र-विचित्र बातोंका वर्णन कर लोगोंको बुद्धिवादसे विमुख कर श्रद्धाजीवी बनानेका होता था, या साधुओंकी विद्यमान स्थितिका समर्थन कर उनकी तरफ श्रावक जनोंका भक्तिभाव बढानेका होता था।
जिनेश्वर सूरिने इस कथाकोशमें, उक्त कथाके अतिरिक्त साधुओंकी श्रद्धापूर्वक भक्ति-उपासना करनेसे और उनको अन्न-वस्त्रादिका दान देनेसे परजन्ममें कैसा पुण्यफल मिलता है तथा इसके विपरीत साधुओंकी निन्दा जुगुप्सा करनेसे एवं उनपर दोषारोपण करनेसे कैसा पापफल मिलता है- इसके वर्णनमें और भी कई कथानक आलेखित किये हैं। इनमें कई कथानक तो कथा-वस्तुकी दृष्टिसे और सामाजिक नीतिरीतिके दृष्टि से भी अच्छे मनोरंजक तथा हितबोधक है ।
जैनधर्मका यह सिद्धान्त है कि मनुष्यका कोई भी कृत्य या कर्म केवल उसके बाह्य क्रियाकलापके खरूप परसे ही शुद्ध या अशुद्ध नहीं समझा जाता । उस कृत्य या कर्मके पीछे करनेवालेकी जो मनोवृत्ति होती है वही उसके शुद्ध-अशुद्ध भावकी सर्जक होती रहती है । लोकव्यवहारकी दृष्टिसे बहुत कुछ दान-धर्म करनेवाला मनुष्य भी अन्तरंगके शुद्ध भावके बिना कुछ पुण्यलाभ नहीं कर सकता । इसलिये प्रस्तुत ग्रन्थमें, ग्रन्थकारने दान देने वाले और दान लेने वाले अर्थात् दाता और ग्राहकके आन्तरिक और बाह्य ऐसे शुद्धाशुद्ध भावोंका तथा कर्मोंका, शुभाशुभ फल बतलानेके लिये अनेक कथानकोंका गुम्फन किया है।
ऊपर लिखे गये मनोरथके कथानकमें यह बतलाया गया है कि उसने किसी वस्तुका दान न दे कर भी, केवल अपने दानशील मनोभावके कारण, उच्च प्रकारका देवजन्म प्राप्त किया। अगले एक कथानकमें यह बताया है कि बहुतसा दान दे कर भी, मनकी संकुचितताके कारण, एक यक्ष नामका श्रावक उत्तम प्रकारके फलसे वंचित हुआ । ___ यह कथानक आध्यात्मिक भावसूचक हो कर भी खरूपसे मनोरंजक है इसलिये पाठकोंके निदर्शनार्थ इसका सार भी दे देते हैं । कथानक इस प्रकार है
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