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जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन - कथाकोश प्रकरण ।
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कथाप्रन्थोंकी आधुनिक परिभाषाके अनुरूप यदि हम जिनेश्वर सूरिकी इन दोनों कृतियोंका - 'निर्वाण लीलावती' और 'कथाकोशप्रकरण' का - विभाग करें तो पहली कृति विशदरूपवाले बृहत्काय एक उपन्यास ( नवलकथा ) के रूपमें है और यह दूसरी कृति भिन्न भिन्न विषयनिरूपक संक्षिप्त कथाओंका (फुटकर कहानियोंका - शॉर्टस्टोरिजका ) संग्रह - ग्रन्थ के रूपमें है ।
इस कथासंग्रहकी प्रत्येक कथामें जिनेश्वर सूरिने कुछ-न-कुछ अपना स्वतंत्र रचना - कौशल प्रदर्शित किया है और अपने वर्ण्य विषयको सुन्दर भाव, भाषा और वर्णनसे अलंकृत किया है । इसके उदाहरणस्वरूप यहां पर कुछ कथाओंका सार देना उपयुक्त समझा है जिससे पाठक मूल ग्रन्थके खरूपको ठीक ठीक समझ सकें । सबसे पहले शालिभद्र की कथाका परिचय पढिये ।
शालिभद्रकी कथाका सार ।
अत्यंत दरिद्रावस्था में भी साधुको पूर्वभव में भाव पूर्वक अन्नदान देनेसे अगले जन्ममें कैंसी विपुल समृद्धि प्राप्त हुई इसके उदाहरणस्वरूप वणिक्पुत्र शालिभद्रकी कथा जैन साहित्य में बहुत प्रसिद्ध है । जिनेश्वर सूरिने भी इस ग्रन्थमें उस कथाको निबद्ध किया है । कथावस्तु तो वही है जो अन्यान्य ग्रन्थों में ग्रथित है; परंतु उसके कहने की शैली जिनेश्वर सूरिकी अपने ढंग की निराली है । इस कथामें जहां मगधका राजा श्रेणिक, शालिभद्रकी माताके आमंत्रणसे, उसके घर पर अपनी रानी चेलणाके साथ, भोजन करनेके लिये आता है, उस प्रसंगका जिनेश्वर सूरिने जैसा वर्णन आलेखित किया है उस परसे, उस समय में बहुत बडे धनाढ्य वणिग् जनों की समृद्धि कैसी विपुल होती थी और किस तरह वे उसका उपभोग करते थे इसका बडा मनोरम और तादृश्य चित्र मनमें अंकित हो उठता है । जो प्राकृत भाषा के ज्ञाता हैं वे तो स्वयं इस वर्णनको पढ कर हमारे कथन की अनुभूति कर सकेंगे परंतु जो मूल ग्रन्थकी भाषाको नहीं समझ सकते उनके लिये हम यहां पर, उदाहरणखरूप, उस वर्णनका कुछ सार देते हैं जिससे पाठकों को जिनेश्वर सूरिकी वर्णन शैलीका कुछ आभास हो सकेगा ।
प्रसंग यह है - मगधकी राजधानी राजगृहमें परदेशके कुछ व्यापारी बडे मूल्यवाले रत्नकंबल बेचनेको आते हैं। कंबलोंकी कीमतें इतनी अधिक हैं कि जिससे उनको कोई बडा धनिक तो क्या खुद राजा भी, अपनी प्रिय पट्टरानी चेलनाकी बहुत कुछ मांग होने पर भी, खरीदनेकी हिंमत नहीं कर सका । इसकी खबर शालिभद्रकी विधवा माता भद्रा सेठानी - जो कि अपना सब कारोबार करनेमें बडी निपुण और सब तरह से समर्थ थी - को हुई तो उसने वे सब कंबल खरीद लिये और उनके टुकडे करके अपनी बहुओंको, जो संख्या में ३२ थीं, 'पायपोंछ' के रूपमें पैरोंके नीचे डालनेके लिये दे दिये । राजाको जब इसका पता लगा तो उसके मनमें भद्रा सेठानीके घरकी समृद्धिके बारेमें बडा कौतुक उत्पन्न हुआ । राजाने शालिभद्रसे मिलना चाहा तो भद्रा सेठानीने उसको, अपनी पट्टरानीके साथ भोजनके आमंत्रण के बहाने, अपने घर पर आनेकी प्रार्थना की और राजा उसका खीकार कर एक दिन सेठानीके घर पर आया और शालिभद्र से मिला । शालिभद्रको तो इस मुलाकातसे संसार पर विरक्ति हो गई और उसने अपनी वह विपुल समृद्धि और ३२ पत्नीयोंका त्याग कर, जैन मुनिपनकी दीक्षा ले ली और अन्तमें कठोर तपश्चर्या करके मुक्तिमार्गको प्रस्थान किया । हम यहां पर यह सारी कथा न दे कर राजा श्रेणिकका भद्रा सेठानीके घर पर आनेका जो प्रसंगवर्णन जिनेश्वर सूरिने अपने ढंगसे किया है उसका सार देते हैं -
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