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जिनेश्वरीय ग्रन्थों का विशेष विवेचन - कथाकोश प्रकरण ।
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यदि इसको द्रव्यशुद्धि मान भी लो, तो भी दायकशुद्धि कहां है ? क्यों कि दायकशुद्ध दान वह है जो निराशंस भावसे दिया जाता है । सो तो हममें है नहीं । सब कोई दाक्षिण्यता और आशंसा ( लाभाकांक्षा ) के भावसे दान देता है । दाक्षिण्यता जैसी कि - मुझे सभा में गुरुमहाराजने बुलाया था; आशंसा जैसी कि - परलोकमें मुझे सुख मिलेगा । इसलिये ऐसे दानमें कहां दायकशुद्धि रही । इसीतरह ग्राहकशुद्धि भी नहीं है । क्यों कि शास्त्रका कथन है कि एक भी शीलके अंगका नाश होने पर सभी शीलांगों का नाश होता है । आगममें कहा है कि - "मनसा आदि करणोंके भेदसे, आहारादि कारणमें, साता आदिको लक्ष्य करके, पृथ्वि आदिकमें, क्षांति आदि धर्मोंका विपर्यय न होना चाहिये” सो ऐसा होना श्रद्धामें नहीं बैठता । इसलिये ग्राहकशुद्धि भी कैसे कुछ हो सकती है ? । '
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जलकी ये सब बातें सुन कर वहां बैठे हुए केका, पूना, धर्मा आदि बोल ऊठे कि – 'अरे ऐसा मत बोल । ऐसा कहने पर तो तूं मिध्यात्वी बन जायगा । क्यों कि शास्त्रविचारका विपर्यय करना ही तो मिथ्यात्व है । इसके सिवा विपर्यासके सिर पर कोई सींग थोडे ही नजर आते हैं । इसलिये तूंने यह सब बातें मिथ्यारूपसे कही हैं । इसकी आलोचना कर और प्रायश्चित्त ले, नहीं तो दुर्गतिमें जायगा
इस पर वहां बैठे हुए दत्तने कहा- 'इस बात पर तो मुझे एक आख्यानक याद आ गया है जो सुनना चाहो, तो सुनाऊं ।' सबने कहा- 'हां हां, सुनाओ सुनाओ' - तब दत्तने निम्नगत
आख्यान कहा ।
दत्तका कहा हुआ आख्यान ।
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एक गच्छ में पांच सौ साधु, और एक हजार साध्वियोंका परिवार था । साधुओं में कोई ऐसा ( असमर्थ ) नहीं था जो नित्यवास रहनेके योग्य हो । वे सब गुरुके साथ विचरा करते थे । आर्यिकाओं में कुछ ऐसी (वृद्धायें ) थीं जो किसी एक नगर में प्रायः स्थिर रूपसे रहा करती थीं। उनमें एक रज्जा नामक साध्वी थी जो गलत्कुष्ठा थी, इसलिये वह सबसे अलग एक दूसरे उपाश्रयमें रहती थी । इस तरह एकाकिनी रहने के कारण वह खिन्न रहा करती थी । एक दिन वह उन अन्य साध्वियोंके पास आई और यथायोग्य वंदनादि करके बैठ गई । तब उन आर्याओंने पूछा - 'महानुभावा तेरा शरीर कैसा है ?' तो उसने कहा - 'प्रासुक पानीके पीनेके कारण यह मेरा शरीर ऐसा हो गया है ।' उसकी बात को सुन कर उन आर्याओंके शरीर में कंप हो आया । 'इस प्रकारका प्रासुक पानीसे हमारा भी शरीर कहीं ऐसा न हो जाय । इसलिये हमें भी क्यों ऐसा पानी लेना चाहिये' - इस प्रकारकी चिंता उनके मनमें होने लगी । एक आर्याने सोचा- 'यह कथन ठीक नहीं है । क्यों कि तीर्थंकर भगवान तो सर्व भावों के स्वभावको जानने वाले हैं, परहितनिरत और विगतरागदोष हैं, सो वे कैसे इस लोक और परलोकमें प्रत्यवाय करनेवाली क्रियाका उपदेश कर सकते हैं ? इससे इसका कहना संगत नहीं मालूम देता ।' इस प्रकार उसके मनमें अत्यंत संवेगभाव उत्पन्न हो गया और उसके फलस्वरूप उसको केवल ज्ञानकी प्राप्ति हो गई । उसने फिर अपने ज्ञानसे यथास्थित वस्तुस्थितिको जान लिया और बोली कि - 'हला आर्याओ, तुम मत विचिंतित बनो । मैंने केवल ज्ञानसे जान लिया है और तुमको कहती हूं, कि तुमने जो मनमें यह विचारा है कि हमें प्रासुक पानी नहीं पीना चाहिये; इसके लिये तुम आलोचना करो और प्रायश्चित्त लो । और रज्जा, तूं इस प्रकार पानीका दोष निकालती हुई तीर्थंकरों की आशातना ( अवज्ञा ) करती है। इससे तो तूं अनंत भवों तक संसार में भ्रमण करेगी । तेंने धन्ना वणिक्के लड़के का मुंह जो सेडेसे भरा हुआ था, उसको साफ किया था और ठंडे ( कच्चे ) पानी से धोया था;
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