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कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । हाल मालूम होगा तो वह राजाको जा कर मिलेगा । राजा भी रक्षा करना चाहेगा । यदि वह तुमको जानेगा तो न मालूम क्या करेगा, इसलिये यहांसे निकल कर चले जाना ही अच्छा होगा।' तोसली कुमारने यह प्रस्ताव स्वीकार किया। उसने अपने मकान पर जा कर कुछ बहुत मूल्यवान रत्नादिक साथमें ले कर, दो अच्छे तेजवान् घोडे तैयार किये । एक अपने लिये और एक सुन्दरीके लिये । उसको झरूखेसे नीचे ऊतार घोडे पर बिठाई । राजकुमार स्वयं था इसलिये किसीने भी थाने आदिमें कहीं रोक-टाक नहीं की और वे शहरसे बहार निकल गये । चलते चलते दूरके राज्यान्तरमें कहीं किसी नगरमें जा कर ठहरे । वे दोनों घोडे बेच दिये और पानी भरने तथा रसोई आदि करनेके लिये एक दासीको रख ली
और धान्य इंधन आदि लाने करनेको तथा घरकी चौकी करनेको एक नोकर रख लिया। इस तरह दोनों परस्पर अत्यन्त स्नेह और प्रेमभावसे अपना जीवन व्यतीत करने लगे । खभावसे वे दोनों बहुत दानप्रिय थे और खल्पकषायी (रागद्वेषादिकी मन्द भावनावाले ) थे । किसी समय उनके घर पर भिक्षाके निमित्त एक साधुयुगल आया । उसको उन्होंने बहुत ही सद्भावपूर्वक आहारदान दिया जिसके पुण्यसे अगले जन्ममें उत्तम मनुष्य अवतार मिला । वे ही तोसली और सुन्दरीके जीव तुम अब इस प्रकार सीहकुमार और सुकुमालिकाके रूपमें उत्पन्न हुए हो।' इत्यादि ।
पाठक इस कथाके वस्तु और घटनाके खरूपको पढ कर समझ सकते हैं कि जिनेश्वर सूरिने अपने समयके सामाजिक जीवनकी रीतियोंके चित्र किस प्रकार अंकित किये हैं । तत्कालीन समाजकी दृष्टिसे कुछ निंद्य और निम्न श्रेणिकी समझी जानेवाली ऐसी घटनाको भी कैसी सहानुभूतिपूर्वक शैलीमें उन्होंने आलेखित किया है यह भी खास ध्यान देनेलायक वस्तु है ।
धर्माधर्मविषयक मीमांसाकी दृष्टिसे इस कथाका विचार किया जाय तो जिनेश्वर सूरिके कथनानुसार तोसली और सुन्दरीका वह स्नेहपूर्ण सहचार, किसी प्रकारके पापकर्मका सूचक नहीं । लौकिक व्यवहारके नियमानुसार विवाह-संबन्धसे जुड़े हुए स्त्री-पुरुषके बीचमें परस्पर प्रेम और स्नेह नहीं है, और उसके निमित्तसे वे यदि एक-दूसरेसे पृथक् हो कर किसी अन्य व्यक्तिके साथ जुडकर अपना सांसारिक जीवन बिताना पसन्द करें, तो जैन सिद्धान्त उसमें धर्माधर्मका या पापपुण्यका कोई सम्बन्ध नहीं लगाना चाहता । जीवनके विकासकी दृष्टिसे- आत्माकी उन्नतिकी अपेक्षासे- उसमें कोई भी सम्बन्ध साधकबाधक नहीं है । ऐसे सम्बन्धका अच्छा-बुरापन केवल लौकिक दृष्टिसे- लोकव्यवहारकी प्रचलित रूढि व मान्यताकी दृष्टिसे- है, न कि पारमार्थिक अर्थात् आध्यात्मिक दृष्टिसे । इसलिये आधुनिक सामाजिक सुधारकी दृष्टिसे किये जानेवाले विधवा-विवाह किंवा लग्नविच्छेद विषयक विधानोंका और नियमोंका, अथवा साम्यवादकी नई नीति-व्यवस्थाका, जिसमें खेच्छापूर्वक स्वीकृत किसी स्त्री-पुरुषका सहचारखरूप दाम्पत्य जीवन वैधानिक माना गया है, जैन सिद्धान्तके तात्त्विक दृष्टिकोणसे, कोई हेयत्व या उपादेयत्व नहीं माना जा सकता।
→ जैन सांप्रदायिक विचारोंकी चर्चाका कुछ चित्रण - प्रस्तुत ग्रन्थमें जिनेश्वर सूरिने, प्रसंगवश कहीं कहीं तत्कालीन प्रचलित कितनीक जैन सांप्रदायिक रूढियों और अनुष्ठानोंका भी अच्छा चित्र आलेखित किया है और उनके विषयमें अपना खाभिप्राय व्यक्त किया है जो जैन संप्रदायके इतिहासके अध्ययनकी दृष्टि से विशेष मननीय है ।
उदाहरणके लिये पृ. ७८ से ८४ तकमें एक मनोरथ नामक श्रावकका कथानक है वह पठनीय है ।
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