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जिनेश्वरीय ग्रन्थों का विशेष विवेचन |
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देशं कालं बलं सूत्रमाश्रित्य गदितो विधिः । जिनानाशातयेत् पापस्तदु घनतामितः ॥ ३२३ अर्थात् - जिनदेवने जो कोई विधि-विधान प्रतिपादित किया है वह सब देश, काल, बल आदिकी दृष्टिसे सापेक्ष है । जो विधि, किसी एक देशको लक्ष्य कर आचरणीय बतलाई गई हो, वही विधि दूसरे देश के लिये अनाचरणीय हो सकती है । जो विधि, किसी कालविशेषको लक्ष्य कर आवश्यक रूप से प्रतिपादित की गई हो, वही विधि अन्य कालके लिये अनावश्यक हो सकती है । इसीतरह जो आचार, युवाको लक्ष्य कर अवश्य उपयोगी बतलाया गया हो, वही आचार बाल या वृद्धके लिये अनुपयोगी हो सकता है । इसलिये किसी भी प्रकार की विधिके हेयोपादेयत्वका विचार देश, काल, बल आदिकी अपेक्षापूर्वक ही करना जैन आगमका उपदेश है । इसके विपरीत जो मनुष्य किसी भी विधि-विधानको एकान्त भावसे हेयोपादेय मानता - समझता है वह अनेकान्त मार्गका अतिक्रम करता है ।
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दिगम्बर - श्वेताम्बरके पारस्परिक वादका विषय जो निर्बंधता है उसके विषयमें जिनेश्वर सूरिने किस प्रकारकी प्रतिपादन शैली इस ग्रंथ में प्रयुक्त की है उसका परिचय करादेनेके लिये निम्न लिखित श्लोक उपयुक्त होंगे ।
निर्भयता जिनैरुक्ता निमित्तं मोक्षशर्मणः । कुतः परिग्रहस्तस्यां तस्मिन् वा सा कथं ननु ॥ १२५ धर्मार्थ स न तां हन्ति हस्त्यश्वरथशालिनाम् । राजादीनां कथं सा न को विशेषोऽपरत्र वः ॥ १२६ कैषा निर्मथता वीरैरुक्ता वस्त्राद्यभावतः । गवादीनां न सा केन कथं वा भवतामसौ ॥ १२७ आन्तरत्यागतः सैषा हन्त सा नास्ति केन नः । भावाभावौ समो हन्त परोक्षत्वाद् द्वयोरपि ॥ १२८ इन श्लोकों का तात्पर्यार्थ इस प्रकार है.
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पूर्वपक्ष दिगम्बर - जिनदेवने मोक्षमार्गका कारण निर्ग्रथता बतलाई है । निर्ग्रथता वह है जिसमें किसी प्रकारका परिग्रह नहीं है । जहां परिग्रह है वहां निर्ग्रथता कैसी । यदि कहा जाय कि धर्मके निमित्त उस 1 परिग्रह का स्वीकार है; तो फिर हाथी, घोडे, रथ आदि रखनेवाले राजा आदिकों को भी वह निर्ग्रथता क्यों नहीं मानी जाय ? तुममें और उनमें फिर फरक ही क्या है ?
उत्तरपक्षमें जिनेश्वर सूरि कहते हैं - वीर भगवान् ने किस प्रकारकी निर्ग्रथता बतलाई है ? यदि कहा जाय कि वस्त्रोंका जिसमें अभाव हो; तो फिर वह निर्भयता तो गाय, बैलमें भी विद्यमान है । फिर उनमें और तुममें क्या विशेष है ? यदि कहा जाय कि आन्तर भावसे जो परिग्रहका त्याग करता है उसको वह नियता प्राप्त होती है; तो फिर वह निर्ग्रथता हममें क्यों नहीं हो सकती है ? क्यों कि यह आंतर त्यागका भावाभाव तो तुम्हारे और हमारे दोनोंके लिये परोक्ष है । तुममें आन्तर त्यागका भाष है और हममें नहीं है यह कौन, कैसे, कह सकता है ? यदि कहा जाय कि आगामोंमें अल्प या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, किसी प्रकारका परिग्रह नहीं रखना साधुके लिये विधान किया गया है; तो फिर आप लोग ( यानि दिगम्बर मुनि ) पुस्तक और कमंडलु आदि रखते हैं उसका क्या ? यदि कहो कि धर्मक्रियामें उपकारि होनेसे उनका रखना उपयुक्त है, तो फिर वैसे ही वस्त्र भी उपकारक होनेसे उनका रखना उपयुक्त क्यों नहीं माना जाय ? । इसलिये हम तो इस व्यर्थके विवादमें एक प्रकारकी शुष्काभिमानिता ही समझते हैं; और इसलिये यह सब आगमका विप्लव है न कि सर्वज्ञका शासन । इत्यादि ।
न चाल्पं बहु वा न स्यात् कुण्डिकादि न चापरम् । धर्मोपकारितां नैति वृथा शुष्काभिमानिता ॥ १३२ ततो विप्लव एवायं न सर्वज्ञस्य शासनम् ॥
क० प्र० ९
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