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जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन।।
५९ जिनेश्वर सूरिने प्रस्तुत ग्रन्थमें प्रमाण और नयादि विषयोंकी जो चर्चा की है उसका उपसंहार करते हुए ये श्लोक लिखे हैं । इनका भावार्थ यह है कि- पक्ष और प्रतिपक्षको लेकर जो तत्त्वचर्चा की जाती है उसके दो स्वरूप होते हैं। इनमें एक तो है वादात्मक स्वरूप-जिसमें विशुद्ध प्रमाणको लक्ष्य करके तत्त्वविचार किया जाता है । दूसरा है जल्पात्मक खरूप-जिसमें साधनाभासोंका प्रयोग होता है । जो जिज्ञासुभावसे वस्तुका सत्य खरूप जानना चाहते हैं उनकी तत्त्वचर्चा वादखरूप होती है और जो प्रतिपक्षका खण्डन और खपक्षका मण्डन करनेकी विजिगीषासे प्रेरित होकर, पदार्थमीमांसा करते हैं, उनकी वह चर्चा जल्पखरूप होती है । अतएव जो प्रमाणवादी हैं वे 'वाद'हीकी विचारणा पसन्द करते हैं और जो अन्य वादी हैं वे साधनाभासों द्वारा 'जल्पका' आश्रय लेते हैं । अतः जिनको परपक्षका निरास करना ही अमीष्ट है वे साधनाभासोंका ही खास विचार करते रहते हैं । उनका मन्तव्य है कि परपक्षका निरास करनेसे वपक्षका समर्थन स्वयं हो जायगा उसके लिये अलग प्रयास करनेकी क्या जरूरत है। इसलिये वे किसी प्रमाणखरूपका लक्षण बतलानेकी आवश्यकता नहीं समझते । यही कारण है कि हरिभद्र और अभयदेव जैसे समर्थ आचार्योंने अपने 'अनेकान्तजयपताका' और 'सम्मतितर्कटीका' जैसे महान् दार्शनिक ग्रन्थोंमें, परपक्षका निरास करनेका ही प्रयत्न किया है । उन्होंने लक्षणप्रतिपादनकी तरफ अपनी अवधीरणा - उपेक्षा प्रकट की है । इसीतरह मल्लवादीने भी 'नयचक्र' ग्रन्थकी रचनामें अपना आदर प्रकट किया परंतु प्रमाणके लक्षण बतलानेका कोई प्रयास नहीं किया। इससे जिज्ञासुओंको यह प्रश्न होगा, कि फिर जिनेश्वर सूरिको इस प्रमाणलक्षणके प्रतिपादक ग्रन्थके रचनेकी क्यों आवश्यकता प्रतीत हुई ? इसके उत्तरमें वे कहते हैं, कि उन बडे आचार्योंके उपेक्षित कार्यमें, हम दोनों (जिनेश्वर और बुद्धिसागर ) गुरु भ्राताओंकी जो प्रवृत्ति हुई है, उसके निमित्त हैं दुर्जनोंके वाक्य । वे दुर्जन कहते रहते हैं, कि इन (श्वेतांबरों )के पास अपने निजके बनाये कोई शब्दलक्षण
और प्रमाणलक्षण विषयक ग्रन्थ नहीं हैं। इसलिये ये परलक्ष्मोपजीवी होकर इनका मत आदिकालसे चला हुआ नहीं है । इसलिये बुद्धिसागर सूरिने पद्यबन्ध ऐसा स्वतंत्र व्याकरण शास्त्र बनाया है और हमने यह प्रमालक्ष्म ग्रन्थ बनाया है; जो अब वृद्धिको प्राप्त हो ऐसी हमारी कामना है।
मालूम देता है कि जिनेश्वर सूरि और बुद्धिसागर आचार्यके इस प्रकार, न्याय और व्याकरणके लक्षणप्रतिपादक ग्रन्थोंके प्रणयनकी प्रवृत्तिका प्रारंभ करने बाद, उनके पीछे होनेवाली पीढीमें इस
१ अत एव श्रीहरिभद्रसूरिपादैः श्रीमदभयदेवसूरिपादैश्च परपक्षनिरासे तैर्यतितम्-अनेकान्तजयपताकायां तथा सम्मतिटीकायामिति । अत एव श्रीमन्महामल्लवादिपादरपि नयचक्र एवादरो विहितः । न तैरपि प्रमाणलक्षणमाख्यातं परपक्षनिर्मथनसमर्थैरपि । परपक्षनिरासादपि स्वपक्षस्य पारिपोष्यात् सिद्धिरिति । प्रमालक्ष्म, पृ. ८९
कीरशानि दुर्जनवाक्यानि इत्याह-शब्दलक्ष्म.'-शब्दलक्ष्म व्याकरणम्, श्वेतभिक्षणां स्वीयं न विद्यते । तथा प्रमालक्ष्मापि प्रमाणलक्षणमपि तेषां स्वीयं न विद्यते । नादिमन्तो नैवादावेव एते संभूताः, किन्तु कुतोऽपि निमित्तादर्वाचीना एते जाता इति । ततो येते परलक्ष्मोपजीविनः बौद्धादिप्रणीतलक्षणमुपजीवितुं शीलाः ।
३ श्रीबुद्धिसागराचार्यैः पाणिनि-चन्द्र-जैनेन्द्र-विश्रान्त-दुर्गटीकामवलोक्य, वृत्तबन्धैः धातुसूत्रगणोणादिवृत्तबन्धैः कृतं न्याकरणं संस्कृतशब्द-प्राकृतशब्दसिद्धये । अस्माभिस्तु प्रमालक्ष्म-प्रमाणलक्षणम् । अत एव पूर्वाचार्यगौरव. दर्शनार्थ वार्तिकरूपेण, तत्रापि स्वाभिप्रायनिवेदनार्थ वृत्तिकरणेन च । प्रमालक्ष्मवृत्ति, पृ. ९०
इस कथनके करनेमें जिनेश्वर सूरिका आशय यह मालूम देता है कि दिगंबर विद्वानोंकी तरह श्वेताम्बराचार्यों में ऐसे स्वतंत्र शब्दशास्त्र अथवा प्रमाणशास्त्र विषयक ग्रंथोंकी रचना करनेकी शक्ति या योग्यताका अभाव था सो बात. नहीं है। परंतु उनको वैसा प्रयास करनेकी कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई थी, इसलिये उन्होंने ऐसे कोई प्रन्थोंका प्रणयन करनेका खास प्रयत्न नहीं किया।
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