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___कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । दृष्टिसे राजाके मनोभावोंको जान कर उसके साथ अपने प्रयोजनका तदनुकूल व्यवहार करना-कराना चाहिये । राजा जब किसी पर कुपित हो तब, उससे किसी प्रकारके कार्यके लिये विज्ञप्ति नहीं करनी चाहिये । वह जब सन्तुष्ट और सुप्रसन्न हो तब ही किसी प्रयोजनके निमित्त उसे कहना-कहलाना आदि चाहिये । इत्यादि । __ इस प्रकार, इस प्रकरण ग्रन्थमें संक्षेपमें श्रावकके जीवनोत्कर्षके सूचक ६ स्थानोंका प्रकीर्णात्मक उपदेश किया गया है । ग्रन्थके अन्तमें कोई उपसंहारात्मक कथन नहीं मिलता इससे मालूम देता है कि इसकी संकलना कोई विशिष्ट प्रकारका संदर्भ ग्रन्थ रचनेकी दृष्टिसे नहीं हुई है, परंतु प्रसंगानुसार जैसे जैसे विचार स्फुरित होते गये वैसे वैसे, सूत्रात्मक रूपमें, इसकी गाथाओंकी फुटकर रचना हुई प्रतीत होती है।
(४) पंचलिंगी प्रकरण ।
षट्स्थानक प्रकरणका अनुसन्धानरूप दूसरा ग्रंथ 'पंचलिंगी प्रकरण' है जिसकी १०१ प्राकृत गाथाएं हैं । इसमें सम्यक्त्वके ५ लिंग अर्थात् चिन्ह (लक्षण ) का स्वरूप वर्णन किया गया है । जिस मनुष्यको सम्यग् दर्शनकी प्राप्ति हुई हो उसके जीवन में उपशम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिक्य इस प्रकारके ५ आन्तरिक भावोंका विकास होता है । इस लिये जैन शास्त्रोंमें सम्यक्त्वके ये ५ चिन्ह बतलाये गये हैं । इन्हीं पांच लिंगों अर्थात् चिन्होंका खरूपवर्णन इस पंचलिंगी प्रकरण में किया गया है । यों तो यह वर्णन, प्रायः जिस तरह अन्यान्य प्राचीन शास्त्रोंमें ग्रथित किया हुआ मिलता है वैसा ही है; तथापि ग्रन्थकारके समयके तथा सांप्रदायिक पक्षके सूचक एवं पोषक ऐसे कुछ विचार भी, इसमें यत्र सत्र प्रथित हुए, दृष्टिगोचर होते हैं । जैसा कि उपशमलिंगके वर्णनमें, असदाग्रहके परित्यागका वर्णन करते हुए, उस समयमें चैत्यवासी आदि कुछ संप्रदायके यतिजनोंमें, कोई कोई क्रिया-विधान ऐसा. प्रचलित होगा जो जिनेश्वर सूरिको शास्त्रसम्मत नहीं प्रतीत होता होगा, तो उसके लिये इन्होंने वैसे क्रियाविधानका करना-कराना असद्-आग्रह बतलाया है । उदाहरणके तौर पर, जब कोई स्त्री पुरुष यतिव्रतकी दीक्षा धारण करता है तब उसको ऐसा दिग्बन्ध कराया जाता है, कि 'तुम आजसे अमुक गच्छके, अमुक आचार्यके, अमुक गुरुके, शिष्य या शिष्यिणी बने हो और इसलिये तुमको सदैव इन्हींकी आज्ञानुसार अपना जीवनव्यवहार व्यतीत करना चाहिये' इत्यादि । साधु-साध्वीके लिये इस प्रकारका दिग्बन्धका विधान तो सब आचार्योको सम्मत है, लेकिन कुछ आचार्य ऐसा ही दिग्बन्ध अपने गृहस्थ धर्मानुयायी श्रावक-श्राविकाओंको भी, श्रावकव्रतका नियम देते समय, कराते थे जो जिनेश्वर सूरिको संम्मत नहीं था। इसलिये इस विधिको उन्होंने असदाग्रहमें उल्लिखित करके, इसको मिथ्यात्व रूपसे प्रकट किया है । इसी प्रकारकी कुछ और भी क्रियाप्रवृत्तियां, जो उस समयके कुछ यतिजनोंमें प्रचलित थीं परंतु जिनको जिनेश्वर सूरि अपने सिद्धान्तसे सम्मत नहीं मानते थे, उनकी गणना उन्होंने असदाग्रहके खरूपमें ग्रथित की हैं। ___ मालूम देता है जिनेश्वर रिने अपने संप्रदायकी पुष्टि और वृदिके लिये नये नये जैन मन्दिरोका निर्माण करवाना और नये-पुराने शास्त्रोंकी प्रतिलिपियां करवा कर जैन ज्ञानभंडारोंका स्थापन करवाना विशेष महत्त्वका समझा था । इसलिये उन्होंने इस ग्रन्थमें, अनुकंपा नामक सम्यक्त्यके तृतीय लिंग प्रकरणमें, किसी तरह इस विषयका संबंध लगाकर, मन्दिर निर्माण और पुस्तकालेखनका विषय भी इसमें राम्मी१ गिहिदिसिबन्धो तह णाहवंत अवहरणमच्छरो गुणिसु । अववायपयालंबण पयारणं मुद्धधम्माणं ॥ ११ सढयाए समाइझं एवं अन्नं च गीयपडिसिद्धं । तव्वंसजाण तब्बहुमाणाउ असरगहो होइ ॥ १२
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