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कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । : इस प्रकरणकी मूलसूत्र भूत मात्र दो प्राकृत गाथाएं हैं जो किन्हीं पूर्वाचार्यकी बनाई हुई हैं। उन्हीं दो गाथाओंमें वर्णित पदोंके विवरण रूपमें इस प्रकरणकी रचना की गई है । इसकी मूल गाथाओंके साथ, कुल मिलाकर १०३ गाथाएं हैं । इन गाथाओंके विशेष-विवरण रूपमें इनके शिष्य नवाङ्गवृत्तिकार अभयदेव सूरिने, प्राकृत गाथाबद्ध एक भाष्यकी रचना की है । बादमें इन्हीं की शिष्य परंपरामें होने वाले, वि० सं० १२९२ में, जिनपति सूरिके शिष्य जिनपाल उपाध्यायने इस पर विस्तृत संस्कृत टीका बनाई। ____ श्रावक अर्थात् उपासक वर्गके गुणोंको लक्ष्य करके जैनाचार्योंने अनेक ग्रन्थोंकी रचनाएं की हैं और उनमें अनेक प्रकारके गुणोंका अनेक रूपसे वर्णन किया गया है । इनमें हरिभद्र सूरिका प्रसिद्ध 'धर्म बिन्दुनामक' ग्रन्थ, शान्ति सूरिका 'धर्मरत्नप्रकरण', प्रद्युम्न सूरिका 'मूलशुद्धि' अपरनामक 'सप्तस्थानक प्रकरण' आदि ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं । इन ग्रन्थोंमें श्रावकोंके व्यावहारिक और धार्मिक जीवनकी विशुद्धि और प्रगतिके लिये कैसे कैसे गुणोंकी आवश्यकता है, इसको उद्दिष्ट करके भिन्न-भिन्न प्रकारके उपदेशात्मक विचार प्रदर्शित किये गये हैं । जिनेश्वर सूरिने भी इस ग्रन्थमें अपने ढंगसे पूर्वाचार्य प्रथित २ गाथाओंके विवरणरूपमें ऐसे ही ६ गुणोंका वर्णन किया है। ये २ गाथाएं इस प्रकार हैं
कयवयकम्मयभावो' सीलत्तं चेव तह य गुणवत्तं । रिउमइववहरणं चिय गुरुसुस्सूसाय बोद्धवा ॥१॥ पवयणकोसलं पुण छटुं तु होइ नायई।
छट्ठाणगुणेहिं जुओ उक्कोसो सावओ होइ॥२॥ इन गाथाओंमें यह सूचित किया गया है कि - जो गृहस्थ, उत्कृष्ट अर्थात् आदर्शभूत श्रावक होना चाहे उसे इन छः स्थानोंका (गुणोंका) अपने जीवन में विकास करना चाहिये । ये छः स्थान इस प्रकार है-(१) गृहस्थ धर्मके व्रतोंका परिशीलन करना; (२) शील अर्थात् सदाचारका सेवन करना; (३) गुणवत्ताको बढाना; ( ४ ) व्यवहार सरल रखना; (५) गुरुजनों की सेवा शुश्रूषा करना; और (६) प्रवचन अर्थात् जैन मतमें कौशल्य प्राप्त करना । इन छः गुणोंका नाना प्रकारके भेदों द्वारा स्पष्टीकरण करके आचार्यने इनका खरूप इस ग्रन्थमें समझाया है । उदाहरणके लिये - दूसरे शीलस्थानके विवरणमें गृहस्थको किन किन स्थानों में जाना-या न जाना चाहिये इसका विवेचन करते हुए यह कहा है कि-वैसे धर्मस्थानोंमें कभी न जाना चाहिये जहां पाखण्डियोंका निवास हो, इतना ही नहीं, परंतु जहां आचारहीन यतिलोक रहते हैं ऐसे जैन मन्दिरोंमें भी न जाना चाहिये - इत्यादि । यह उनके समयकी चैत्यवास स्थिति और उसका जो उन्होंने विरोध किया उसका सूचक है । इसके साथ यह भी कहा है कि गृहस्थको, किसी अन्य गृहस्थके, ऐसे घर पर भी नहीं जाना चाहिये जहां घरका मालिक उपस्थित न हो; और उस घरमें तो किसी तरह न जाना चाहिये जहां अकेली स्त्री रहती हो । श्रावकको ऐसा वचन-व्यवहार भी कभी न करना चाहिये जिससे किसी दूसरेके मनमें द्वेषभाव पैदा हो और जो लोकोंमें या राजवर्गमें अप्रीति पैदा करनेवाला हो । श्रावकको अपनी वेष-भूषादि भी, अपनी जन्म भूमि, जाति और परिस्थितिके अनुरूप ही रखनी चाहिये । कभी भी नट विटादिकोंके जैसा उद्भट वेष नहीं पहनना चाहिये । कुल और देशके विरुद्धका वेष, राजाको भी शोभा नहीं देता तो फिर श्रावकजन जो नायः जातिसे वणिक होते हैं, उनको तो ऐसा वेष कभी शोभा दायक नहीं हो
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