________________
૪૮
कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । सिद्धान्तोंकी मीमांसासे ओतप्रोत है; इस लिये इन सूत्रोंका सुगम और सरल रीतिसे अर्थबोध हो सके इस दृष्टिको लक्ष्य करके जिनेश्वर सूरिने अपनी यह नई वृत्ति बनानेका प्रयास किया था । इस चैत्यवन्दन सूत्रपाठके कुछ आलापकोंकी (प्रकरणोंकी) पाठ्य पद्धतिके विषयमें भी पूर्वाचार्योंका परस्पर सांप्रदायिक मतभेद रहा है । जिनेश्वर सूरि एवं उनके गुरुका, एक प्रकारसे नया ही संप्रदाय प्रस्थापित हुआ था इस लिये उनको यह भी प्रतीत हुआ होगा कि हमको अपने संप्रदायके लिये किस प्रकारकी पाठ्य पद्धतिका अवलम्बन करना उचित है । अतः इस व्याख्याकी रचना द्वारा उन्होंने उसका भी विधान कर देना समुचित समझा। इसके प्रारंभमें जिनेश्वर सूरिने इस प्रकार उपोद्घातात्मक पद्य लिखे हैं ....
रागाद्यरातिविजयाप्तजिनाभिधानं देवाधिदेवमभिवन्ध निराकृताधः। तच्चैत्यवन्दननियुक्तमशेषसूत्रं शक्रस्तवादि विवृणोमि यथावबोधम् ॥ १ सत्यं सन्ति नयप्रमाणविषयक्षोदः क्षमाः पञ्जिकाः
। सूत्रस्यास्य चिरन्तनैः कविवृषैर्टब्धाः परं भेदवान् । नानासूरिनिमित्तकोऽपि विविधो मे संप्रदायोऽस्ति यत्,
प्रायस्तस्य निवेदनं परकृतौ कर्तुं नु नो शक्यते ॥२ तस्मादेष समारम्भस्तत्प्रकाशाय युक्तिमान् । पूर्वसूरिभिरप्येवं रचिता वृत्तयः पृथक् ॥ ३ नानन्तार्थमिदं सूत्रं व्याख्यातं पूर्वसूरिभिः। नियतार्थप्रकाशेऽतो नोपालम्भोऽस्ति कोऽपि नः ॥ ४ साधुश्रावकयोरत्र न विशेषोऽस्ति कश्चन । कचित् सूत्रे क्रियायां च विशेषः साधुगोचरः ॥५
इन पद्योंका भावार्थ यह है कि- रागादि शत्रुओंको जीतनेवाले जिनेश्वर देवको वन्दन करके, उन्हींके चैत्य अर्थात् प्रतिबिम्ब ( मूर्ति ) को वन्दन करनेके ज्ञापक जो 'शकस्तवादि' विशेष सूत्र हैं उनकी यथामति व्याख्या करनेका प्रयत्न किया जाता है । यों तो इन सूत्रों पर पूर्वकालीन कविश्रेष्ठ (हरिभद्र) ने पञ्जिका रूप, नय और प्रमाण विषयक तकॉसे परिपुष्ट, जो व्याख्या बनाई है वह विद्यमान है । परंतु इन सूत्रोंके विषयों में अनेक आचार्योंके, विविध प्रकारके, मतभेद दृष्टिगोचर हो रहे हैं और इस तरह हमारा भी कुछ थोडासा भिन्नखरूप ऐसा निजी संप्रदाय है । अतः उसका प्रकाशन करनेके लिये हम इस विवरणकी रचना करते हैं । क्यों कि दूसरोंकी कृतिके आधार पर अपना अभिमत विचार प्रतिपादित नहीं किया जाता । इस लिये हमारा यह प्रयास युक्तिपुरःसर ही समझना चाहिए । क्यों कि
और और पूर्वाचार्योंने भी अपना अपना अभिमत प्रतिपादित करनेके लिये इसपर अलग अलग ऐसी वृत्तियां बनाई ही हैं । इस 'चैत्यवन्दन' सूत्रको पूर्वाचार्योंने अनन्तार्थगर्भित बतलाया है । इसलिये इसका कोई एक नियतार्थ प्रगट करनेमें हमको कोई उपालम्भ नहीं हो सकता । इस चैत्यवन्दनके विधानमें साधु और श्रावक दोनोंका कोई विशेष भेद नहीं है । लेकिन सूत्रोंकी पठनक्रियाकी पद्धतिमें साधुओंका कुछ थोडासा पारस्परिक संप्रदायभेद दृष्टिगोचर जरूर होता है । इत्यादि ।
इसके आगे फिर शकस्तवादिका पाठ किस ढंगसे, किस आसनसे, करना चाहिये इस विषयमें आचार्योंके जो कुछ विशेष मत हैं उनका संक्षेपमें सूचन कर, अपना अभिमत सूत्रविवरण आलेखित किया है । इस विवरणकी शैली सरल और स्फुटार्थक है । मूल सूत्रका ठीक स्पष्टीकरण हो सके उतना ही अर्थालेखन इसमें किया गया है । विशेष विस्तृत शास्त्रार्थका जहां कहीं प्रसङ्ग आया वहां उसके लिये यह कह दिया गया है कि यहाँ पर बहुत कुछ कहने लायक है; परंतु वह अन्य स्थानसे (ग्रन्थान्तरसे) जान लेना चाहिये । हमें तो यहां पर, दूसरे विवरणकारोंने या व्याख्याकारोंने जो बात नहीं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org