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कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि ।
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यह वृत्ति बनाई है । विक्रम संवत्सर के १०८० के वर्ष में सुन्दर ऐसे जाबालिपुर स्थानमें रहते हुए इसे समाप्त की है ।
न तो हममें कोई ऐसी 'वचन - रचना' बतानेवाली चातुरी है, न वैसा कोई शास्त्रोंका बोध है और नाही मार्गदर्शन करानेवाला, इस ग्रन्थ पर कोई पुराना विवरण ही, हमें उपलब्ध है । तथापि अपना अभ्यास बढाने के संकल्पके वश हो कर हम इस विवरणकी रचनायें प्रवृत्त हुए हैं ।
जिनेश्वर सूरिके इस अन्तिम उद्गारमें, उनकी अपने पाण्डित्यविषयक निरभिमानिता और साथ-ही-में अपने अभ्यासकी उत्कंठाका भी अच्छा सूचन हमें मिल रहा । उनकी वचन - रचना कैसी परिमित, परिमार्जित और भावपूर्ण है और साथ ही में उनमें कैसा विशाल शास्त्रबोध है, यह तो जो विद्वान् स्वयं इस विवरणका मननपूर्वक अध्ययन कर सकता है उसे ही इसका ठीक आकलन हो सकता है ।
जिनेश्वर सूरिने इस विवरणकी रचनायें, मूलग्रन्थकार हरिभद्र सूरिके समान ही अपना निराग्रहभाव प्रदर्शित किया है । क्या तो अन्य दर्शनोंके मन्तव्योंकी आलोचना - प्रत्यालोचना करते हुए और क्या स्वयूथ्योंके विचारोंका खण्डन - मण्डन करते हुए - सर्वत्र इन्होंने अपनी निराग्रह बुद्धिका आदर्श उपस्थित किया है। जहां किसी विवादात्मक विचारके विषयमें, सर्वथा निःशंक विधान करना इन्हें समुचित नहीं मालूम दिया, वहां "तत्त्वं पुनरिह केवलिनो विदन्ति” अर्थात् - इसमें तत्त्व क्या है यह तो केवली ( केवलज्ञानधारक = सर्वज्ञ ) ही जानते हैं - ऐसा कह कर अपना निरपेक्ष भाव सूचित कर दिया है; और किसी स्थानपर, जहां इनको अपना अभिप्रेत अर्थ ही विशिष्ट रूपसे प्रतिपादन करना उचित जंचा, वहां भी, युक्ति-पूर्वक बडे चातुरीभरे शब्दोंमें उसका समर्थन किया । इसका उदाहरण हमें इसी ग्रन्थके प्रणेता हरिभद्र सूरिके एक जीवनविषयक उल्लेख से ज्ञात होगा ।
हरिभद्र सूरके विषय में, उस समय, बहुमान्य परंपराश्रुति यह थी कि वे स्वयं चैत्यवासी आचार्यके शिष्य थे और उनकी जीवनचर्या भी कुछ कुछ अंश में चैत्यवासियोंके जैसी ही थी । यद्यपि वे बहुत विरक्त, निःस्पृह, क्रियारुचि और संयमशील आचार्य थे; तथापि उनका बहुतसा आचार-व्यवहार तत्कालीन परिस्थितिके अनुरूप, चैत्यवासियोंके ढंगका था । जिनेश्वर सूरि तो चैत्यवासके बडे कडे विरोधी थे । उन्होंने तो उसका बहुत उग्रभावसे खण्डन किया और उसके पक्षके समर्थक आचार्योंको हीनाचारी कह कर उनके प्रति कठोर अनादर प्रकट किया । चैत्यवासी यतिजन अपने पक्ष के समर्थनमें हरिभद्र जैसे महान् समर्थ शास्त्रकारका उदाहरण दिया करते थे और उनको अपना श्रद्धेय पूर्वज बतलाते थे । हरिभद्र जैसे जैन शासन के एक महान् युगप्रवर्तक और समर्थ संरक्षक आचार्यका चैत्यवासीके रूपमें स्वीकार करना जिनेश्वर सूरिको सर्वथा अभिप्रेत नहीं था ।
यद्यपि हरिभद्र सूरिकी शास्त्रीय रचनाओंमें ऐसा कोई स्पष्ट विधान कहीं भी नहीं उपलब्ध होता है, जिससे उनके चैत्यवासी होने का समर्थन हो सके या चैत्यवासके पक्षको उत्तेजन मिल सके । बल्कि चैत्यवासके आनुषङ्गिक दोषोंकी और चैत्यवासियोंके प्रकट शिथिलाचार की उन्होंने अनेक रूपसे निन्दा की है; तथापि वे थे उसी परंपरा के अन्तर्गत । इसका ज्ञापक एक सांप्रदायिक मन्तव्य इसी 'अष्टक प्रकरण' में अन्तर्निहित है, जिसका तात्पर्य जिनेश्वर सूरिने अपने मन्तव्यानुरूप बतला कर हरिभद्रके विषय में भी यह बात बडे अच्छे ढंग से कह दी है कि हरिभद्र तो पूरे संविग्नपाक्षिक अर्थात् संयतमार्ग के पक्ष के थे । जो संविग्नपाक्षिक होगा वह कभी अनागमिक = आगमके विरुद्ध उपदेश
नहीं कर सकता ।
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