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कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि ।
चैत्यके अधिष्ठाता उस समय विजयसिंहाचार्य थे जो वहांके विशिष्ट आचार्योंमेंसे एक माने जाते
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इन कतिपय बहुत प्रसिद्ध चैत्यों के अतिरिक्त वहां पर और भी कई छोटे बडे चैत्य थे जिनके आश्रय में अनेक यतिजन निवास किया करते थे और जो अपने अपने गच्छवासी गृहस्थोंके समूह के धर्मगुरु हो कर अपने अधिकृत धर्मस्थानोंका - चैत्योंका तथा उपश्रायोंका - अधिकार भार वहन किया करते थे ।
ये यतिजन यों तो प्रायः त्यागी ही होते थे । स्त्री और धनके परिग्रहसे प्रायः मुक्त होते थे । विद्याध्ययन, धर्मोपदेश और धर्मक्रियाएं करने - कराने में ये व्यस्त रहते थे । साहित्य, संगीत, शिल्प, ज्योतिष, वैद्यक आदि विविध कलाओं और विद्याओंका इनमें यथेष्ट आदर और प्रचार था । प्रत्येक मन्दिर और उससे संलग्न उपाश्रय सार्वजनिक शिक्षणके विद्यानिकेतन जैसे थे । जैन और जैनेतर दोनों वर्गों के उच्च जातीय बालकोंकी शिक्षा प्रायः इन्हीं स्थानोंमें और इन्हीं यतिजनोंके आश्रय नीचे हुआ करती थी । प्रत्येक मन्दिर या उसके उपाश्रयमें छोटा बडा ग्रन्थभंडार रहता था, जिसमें जैनधर्मके सांप्रदायिक ग्रन्थों के अतिरिक्त, सर्वसाधारण ऐसे न्याय, व्याकरण, साहित्य, काव्य, कोष, ज्योतिष, वैद्यक आदि सभी विषयोंके ग्रन्थोंका भी उत्तम संग्रह होता था । अपनी नित्य नैमित्तिक धर्मक्रियाएँ करते रहते हुए ये यतिजन, बाकीका सारा समय अध्ययन, अध्यापन, ग्रन्थप्रणयन और पुराने ग्रन्थोंके प्रतिलिपीकरणका कार्य नियमित किया करते थे । इनके भोजनका प्रबन्ध या तो भक्त गृहस्थोंके यहांसे गोचरीके रूप में हुआ करता था या फिर अपने स्थान - ही में किसी भृत्यजनद्वारा किया जाता था |
यों इन जैन यतिजनोंका यह आचार और जीवन-व्यवहार, प्रायः मठनिवासी शैव संन्यासियों के जैसा बन रहा था; और अनेक अंशोंमें समाजके हितकी दृष्टिसे, बहुत कुछ लाभकारक भी था । परंतु जैन शास्त्रों में जो यतिजनोंका आचारधर्म प्रतिपादित किया गया है और जिसका सूचन संक्षेपमें हमने ऊपर किया है, वह इससे सर्वथा अन्य रूपमें हैं ।
वर्द्धमान सूरि तथा जिनेश्वर सूरि, उस शास्त्रोक्त शुद्ध यतिमार्गका आचरण करनेवाले थे । जैन यतिवर्ग के बड़े समूहमें, उक्त प्रकार के चैत्यवासका विस्तार हो कर, उसके आनुषंगिक दोषोंका - चारित्र्यशैथिल्य और आचार - विप्लव आदि प्रवृत्तियोंका - जो विकास हो रहा था उसका अवरोध कर, वे शुद्धाचारका पुनः उद्धार और प्रचार करना चाहते थे । उनकी दृष्टिमें ऊपर बताया गया चैत्यवासी यतिवर्गका आचार-व्यवहार, जैनधर्मका सर्वथा हास करने वाला था अत एव भगवान् महावीरके उपदिष्ट मोक्षमार्गका वह विलोपक था । इस कारण से चैत्यवासी यतिजनों को इनका उपदेश और प्रचारकार्य रुचिकर न हो कर अपने हितका विघातक लगना और उसके लिये इनका विरोध और बहिष्कारादि करना, उनके लिये खाभाविक ही था और इसीलिये उक्त रीतिसे जब अणहिलपुरमें पहुचे तो इन्हें, तत्कालीन जैन समाज के उस बडे भारी केन्द्रस्थानमें भी, कहीं ठहरने करनेका कोई उचित स्थान नहीं मिल सका ।
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फिर उसी अणहिलपुरमें इन्होंने अपने चारित्र और शास्त्रबलके प्रभावसे किस तरह अपना विशिष्ट स्थान जमाया इसका वर्णन जो इन प्रबन्धों में दिया गया है वह मुख्य स्वरूपमें प्राय: समान है । दुर्लभराजके पुरोहित सोमेश्वर देवकी सहायता और मध्यस्थतासे, चैत्यवासियोंके साथ इनका राजसभा में वादविवाद होना और उसमें इनके पक्षका न्याय्यीपन स्थापित हो कर, न्यायप्रिय दुर्लभराजने अणहिलपुर में घसने के लिये इनको वसति आदि प्रदान करनेका जो वृत्तान्त प्राप्त होता है वह एकसा ही है और प्रायः तथ्यमय है । परन्तु सुमतिगणि और जिनपालोपाध्यायने इस वर्णनको खूब बढा-चढा कर तथा अपने
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