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कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । जिनेश्वर सूरिका जन्म कब हुआ, दीक्षा कब ली, आचार्यपद कब मिला और स्वर्गवास कब हुआ इसकी निश्चित मितियां इनके चरित-प्रबन्धोंमें कहीं नहीं उपलब्ध होतीं । इससे इनका संपूर्ण आयु कितने वर्षोंका था यह जाननेका कोई साधन नहीं है । तथापि दुर्लभराजकी सभामें चैत्यवासविषयक वाद-विवादके प्रसंगका निश्चित उल्लेख मिलनेसे तथा इनके बनाये हुए कुछ ग्रंथोंमें समयका निर्देश किया हुआ उपलब्ध होनेसे इनके आयुष्य एवं जीवन-कालकी आनुमानिक कल्पना कुछ की जा सकती है ।
इनके समय-ज्ञापक कार्यका सबसे पहला सूचन दुर्लभराजके समयका है । गुजरातके अन्यान्य ऐतिहासिक प्रमाणों द्वारा यह निश्चित रूपसे ज्ञात है कि दुर्लभराजने वि० सं० १०६६ से १०७८ तक ११-१२ वर्ष राज्य किया था । अतः इन्हीं वर्षों के बीचमें किसी समय इनका पाटण आना और वहां पर उस वाद-विवादका होना सिद्ध होता है । ___ सं० १०८० में वे जावालिपुरमें थे और वहां पर हरिभद्रसूरिकृत 'अष्टक प्रकरण' पर विस्तृत संस्कृत टीका रच कर उसे समाप्त की । इसी समय और वहीं पर, इनके लघुभ्राता बुद्धिसागर सूरिने भी अपना खोपज्ञ 'बुद्धिसागर व्याकरण' ग्रन्थ रच कर पूर्ण किया। इससे यह भी मालूम देता है कि ये दोनों आचार्य, जावालिपुरमें अधिक समय रहा करते होंगे । यह जावालिपुर इनका एक विशिष्ट कार्यक्षेत्र अथवा केन्द्रस्थानसा मालूम देता है । क्यों कि वि० सं० १०९६ में भी इन्होंने, वहीं अपने 'चैत्यवन्दनटीका' नामक एक और ग्रन्थकी रचना की थी।
संवत् १०९२ में आशापल्ली (आधुनिक अहमदाबादके स्थान परबसा हुआ पुराना स्थान )में रह कर इन्होंने अपने 'लीलावती' नामक विशाल कथा-ग्रन्थकी रचना पूर्ण की।
संवत् ११०८ में प्रस्तुत 'कथानककोष' ग्रन्थका प्रणयन किया । यद्यपि इसमें यह नहीं सूचित किया गया है कि इस ग्रन्थकी रचना किस स्थानमें की गई थी; परंतु उक्त दोनों प्रबन्धोंमें इसके रचनास्थानका उल्लेख किया हुआ मिलता है और वह है मारवाडका डिण्डवानक नामक गांव । संभव है यह ग्रन्थ जिनेश्वर सूरिकी अन्तिम कृति हो। __इनके बनाये हुए ग्रन्थोंमें मुख्य एक ग्रन्थ जो 'प्र मा ल क्ष्म' है उसके अन्तमें बनानेका समय और स्थानका कोई उल्लेख नहीं मिलता इसलिये उसकी रचनाका निश्चित समय ज्ञात नहीं हो सकता; तथापि उसके अन्तमें बुद्धिसागराचार्यके व्याकरण ग्रन्थकी रचना करनेका उल्लेख किया गया है इससे यह अनुमान किया जा सकता है, कि सं० १०८०, जो उक्त व्याकरणकी रचनाका समय है, उस के बाद ही कभी उसकी रचना की गई थी।
१ पिछली पट्टावलियोंमें इस वाद-विवादका संवत दो तरहका लिखा हुआ मिलता है। एक है वि० सं० १०२४ और दूसरा है सं. १०८० । इसमें १०२४ का उल्लेख तो सर्वथा भ्रान्त है क्यों कि उस समय पाटणमें तो दुर्लभराजके प्रपिता मूलराजका राज्य था । शायद दुर्लभराजका तो उस समय जन्म भी नहीं हुआ था। दूसरा, जो १०८० का संवत्का उल्लेख है वह भी ठीक नहीं है। क्यों कि निश्चित ऐतिहासिक प्रमाणोंके आधार पर यह स्थिर हुआ है कि दुर्लभराजकी मृत्यु सं० १०७८ में हो चुकी थी। १०८० में तो उसके पुत्र भीमदेवका राज्य प्रवर्तमान था। इसके विरुद्धमें एक और प्रमाण जिनेश्वर सूरिका स्वयंकृत उल्लेख भी विद्यमान है। सं० १०८० में तो जिनेश्वर सूरि, जैसा कि ऊपर बताया जा रहा है, मारवाडके जावालिपुर (जालोर) में थे जब उन्होंने अपनी हारिभद्रीय-अष्टकग्रंथकी टीका रचकर समाप्त की थी। अतः उस वाद-विवादका दुर्लभराजके समयमें अर्थात् १०७८ के पहले और सं० १०६६ के बीचके किसी समयमें होना ही मानना युक्ति संगत लगता है।
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