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कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि ।
वृद्धाचार्य प्रबन्धावलिगत जिनेश्वर सूरि के चरितका सार । ऊपर हमने, इनके चरितका साधनभूत ऐसे एक प्राकृत 'वृद्धाचार्यप्रबन्ध ( वलि' नामक ग्रन्थका भी निर्देश किया है । इसमें बहुत ही संक्षेपमें जिनेश्वर सूरिका प्रबन्ध दिया गया है जो कि असंबद्धप्राय: है । तथापि पाठकों की जिज्ञासा के निमित्त इसका सार भी हम यहां पर दे देते हैं ।
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इस कृतिमें, पहले वर्द्धमान सूरिका प्रबन्ध दिया है और फिर उसके बाद जिनेश्वरका प्रबन्ध है ।
इसमें कहा गया है कि - किसी समय वर्द्धमान सूरि परिभ्रमण करते हुए सिद्धपुर नगरमें पहुंचे जहां सदानीरा सरखती नदी बहती है । उस नदीमें बहुतसे ब्राह्मण रोज स्नान किया करते हैं । उनमें एक पुष्करणागोत्रीय जगा नामक ब्राह्मण, जो सब विद्याओंका पारगामी था, एक दिन नदीसे स्नान करके आ रहा था तब बहिर्भूमिके लिये जाते हुए वर्द्धमान सूरिसे उसकी भेंट हो गई । सूरिको देख कर उसने उनकी निन्दा की । बोला 'ये श्वेतांबर शूद्र हैं, वेद बाह्य हो कर अपवित्र ।' सुन कर सूरिने उत्तर दिया कि 'हे ब्राह्मण ! केवल बाह्य स्नानसे थोडी ही शुद्धि हो जाती है । देख तेरा ही शरीर शुद्ध नहीं है । तेरे शिर पर तो मृतक कलेवर पडा हुआ है ।' सुन कर ब्राह्मण क्रुद्व हुआ और बोला 'क्यों ऐसा मिथ्या वचन बोल रहे हो ? यदि मेरे मस्तकमें मृतक बता दोगे तो मैं तुम्हारा शिष्य बन जाऊंगा ; नहीं तो फिर तुमको मेरा शिष्य बनना पडेगा ।' सूरिने कहा 'ठीक है, तुम अपने शिर परका कपडा उतारो।' सूरिका कथन सुनते ही उसने कुपितभावसे अपने मस्तक परका कपडा एकदम जोरसे खींच कर उनके सामने झटकारा, तो उसमेंसे एक मरी हुई मछली निकल कर नीचे गिर पडी । यह देख कर वह विलक्षितसा हो गया । अपना पण हार गया और वचनपालन के निमित्त सूरिका शिष्य बन गया ।
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बाद में वह गुरुके पास बडी श्रद्धासे सब प्रकार की शिक्षा ग्रहण कर, सिद्धान्तोंका पारगामी विद्वान् बना । गुरुने योग्य समझ कर 'जिनेश्वर सूरि' इस नामसे उनको अपने पट्ट पर प्रतिष्ठित किया । पीछे वर्द्धमान सूरि तो अनशन कर स्वर्गको प्राप्त हो गये और जिनेश्वर सूरि गच्छनायक हो कर सर्वत्र विचरने लगे । फिरते फिरते वे अणहिलपुरमें पहुंचे। वहां पर ८४ गच्छोंके भट्टारक ( आचार्य ) चैत्यवासी हो कर मठपति बने हुए थे और मात्र द्रव्यलिंगीके भेषमें दिखाई देते थे । जिनेश्वर सूरिने उनके विपक्षमें दुर्लभराज की सभा में, १०२४ (?) की सालमें, वाद-विवाद किया, जिसमें वे सब मत्सरी आचार्य अपना पक्ष हार गये । राजाने तुष्ट हो कर उनको 'खर तर' ऐसा बिरुद दिया । इसके बाद उनका गच्छ ' खरतर ' के नामसे प्रसिद्ध हुआ ।
जिनेश्वर सूरिकी पूर्वावस्थाका जो यह वर्णन इस प्रबन्धावलि में किया गया है, इससे मिलता जुलता वर्णन, खरतर गच्छकी पिछली कुछ अन्यान्य पट्टावलियों में भी किया हुआ मिलता है । उदाहरण के तौर पर, खरतर गच्छकी जो पट्टावलि क्षमाकल्याणक गणिकी बनाई हुई है उसमें लिखा है कि - वर्द्धमान सूरि परिभ्रमण करते हुए जब सरसानामक पत्तनमें पहुंचे तो वहां पर सोमनामक ब्राह्मणके शिवेश्वर और बुद्धिसागर नामक ये दो पुत्र तथा कल्याणमती नामकी पुत्री - ये तीनों भाई-बहिन भी सोमेश्वरकी यात्राको जाते हुए उस समय उसी गांव में आ पहुंचे । वहां पर सरस्वती नदी के किनारे, किसी स्थानमें, रातको जब वे सोये हुए थे तब शिवने प्रत्यक्ष हो कर उनसे कहा कि 'तुम्हारी इच्छा आत्मकल्याण करनेकी है तो यहां पर वर्द्धमान सूरि नामक जैन आचार्य आये हुए हैं उनके पास जाओ । उनकी चरणसेवासे तुमको वैकुण्ठकी प्राप्ति होगी ।' फिर दूसरे दिन प्रातःकाल वे तीनों जन नदीमें स्नान करके बर्द्धमान सूरके पास गये और उनसे उन्होंने वैकुण्ठका मार्ग दिखानेकी विज्ञप्ति की । सूरिने उनको अहिंसामय
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