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। कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि ।
जिनभद्राचार्यकृत उल्लेख । कालक्रमकी दृष्टिसे, जिनेश्वर सूरिके गुणोंका परिचय देने वाले उनके अन्यान्य विद्वान् एवं प्रधान शिष्योंमें, पहला स्थान धनेश्वर अपर नाम जिनभद्राचार्यका है, जिन्होंने 'सुरसुन्दरी' नामक कथाग्रन्थकी, प्राकृत भाषामें, एक बहुत ही सरस रचना की है। इस कथाकी रचनासमाप्ति वि. सं. १०९५ में, चड्डावलि (चन्द्रावती) नामक स्थानमें की गई है। बहुत संभव है कि ये भी सदैव अपने गुरुके साथ ही रहने वाले शिष्योंमेंसे एक हों । क्यों कि प्रस्तुत कथाकोष ग्रन्थकी प्रशस्तिमें कहा गया है कि वि. सं. ११०८ में जब इस ग्रन्थकी रचना पूरी हुई तब, इसका प्रथमादर्श अर्थात् पहली शुद्ध एवं परिपूर्ण प्रति, इन्हीं जिनभद्राचार्यने तैयार की थी। बादमें फिर इसकी अनेक पोथियां लिखवाई गई और उनका प्रचार किया गया । इन्होंने अपनी सुरसुन्दरी कथाकी अन्तिम प्रशस्तिमें अपने गुरुका परिचय इस प्रकार कराया है
सीसो य तस्स सूरी सूरो व्व सयावि जणिय-दोसंतो। आसि सिरि-वद्धमाणो पवढमाणो गुण-सिरीए ॥ २४०॥ रागो य जस्स धम्मे आसि पओसो य जस्स पावम्मि । तुल्लो य मित्त-सत्तुसु तस्स य जाया दुवे सीसा ॥२४१॥ दुव्वार-वाइ-वारण-मर-निट्ठवण-निटर-मइंदो। जिण-भणिय-सुद्ध-सिद्धंत-देसणा-करण-तल्लिन्छो ॥ २४२॥ जस्स य अईव-सुललिय-पय-संचारा पसन्न-वाणीया। अइकोमला सिलेसे विविहालंकार-सोहिल्ला ॥२४३॥ लीलावद त्ति नामा सुवन्नरयणोह-हारि-सयलंगा। वेस व्व कहा वियरइ जयम्मि कय-जण-मणाणंदा ॥२४४॥ एगो ताण जिणेसर-सूरी सूरो व्व उक्कड-पयावो। तस्स सिरि-बुद्धिसागर-सूरी य सहोयरो बीओ॥२४५॥ पुन्न-सरदिंदु-सुंदर-निय-जस-पब्भार-भरिय-भुवण-यलो। जिण-भणिय-सत्थ-परमत्थ-वित्थरासत्त-सुह-चित्तो॥२४६॥ जस्स य मुह-कुहराओ विणिग्गया अत्थ-वारि-सोहिल्ला । बुह-चकवाय-कलिया रंगत-सुफक्किय-तरंगा ॥२४७॥ तडरुह-अवसद्द-महीरुहोह-उम्मूलणम्मि सुसमत्था ।
अज्झाय-पवर-तित्था पंचग्गंथी नई पवरा ॥ २४८॥ इसमें, प्रथम जिनेश्वर सूरिके गुरु वर्द्धमानाचार्यका उल्लेख करके पीछे, उनके दोनों शिष्योंकी अर्थात् जिनेश्वर सूरि और बुद्धिसागराचार्यकी प्रशंसा की गई है । जिनेश्वर सूरिके लिये कहा है कि ये दुर्मद ऐसे १ गणधरसार्द्धशतकमें, जिनदत्त सूरिने इनका परिचय निम्नलिखित गाथामें दिया है -
सुगुणजणजणियभद्दो जिणभद्दो जविणेयगणपढमो । सपरेसि हिया सुरसुन्दरी कहा जेण परिकहिया ॥ जिनदत्त सूरिके इस कथनसे ज्ञात होता है कि ये जिनभद्राचार्य जिनेश्वर सूरिके सर्व प्रथम (विनेयगणमें प्रथम) शिष्य होंगे। अभयदेव सूरिने भगवतीसूत्रकी वृत्तिकी प्रशस्तिमें इनका उल्लेख किया है और उस वृत्तिके प्रन्थनमें इन्होंने अपनी पूरी सहायता प्रदान की इसके लिये उन्होंने इनके प्रति अपना उत्तम उपकृत भाव प्रकट किया है। जिनभदके साथ. अभयदेवके एक शिष्य यशश्चन्द्रगणि भी इस ग्रन्थके प्रणयनमें सहायक बने थे, उस लिये इन दोनों के लिये अभयदेवसूरिने ये निम्नगत उद्गार प्रकट किये हैं।
श्रीमजिनेश्वराचार्यशिष्याणां गुणशालिनाम् । जिनभद्रमुनीन्द्राणामस्माकं चाहिसे बिनः॥ पशान्द्रगणेढसाहाय्यात् सिदिमागता ॥
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