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कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । पर लिखा गया मालूम दे रहा है । इससे इसका भी ऐतिहासिकत्व विशेष विश्वसनीय हमें नहीं प्रतीत होता। जिनेश्वर सूरिकी पूर्वावस्थाका ज्ञापक उल्लेख इसमें और ही तरहका है जो सर्वथा कल्पित मालूम देता है ।
इन साधनोंमें, प्रथमके तीन निबन्ध में अधिक आधारभूत मालूम देते हैं और इसलिये इन्हीं निबन्धोंके आधार पर हम यहां जिनेश्वर सूरिके चरितका सार देनेका प्रयत्न करते हैं।
५. जिनेश्वर सूरिकी पूर्वावस्थाका परिचय । जैसा कि हमने ऊपर सूचित किया है, सुमति गणी और जिनपालोपाध्यायके चरित-वर्णनमें
"जिनेश्वर सूरिकी पूर्वावस्थाका कोई निर्देश नहीं किया गया है। उनमें तो इनके चरित-वर्णनका प्रारंभ वहींसे किया गया है, जब वर्द्धमान सूरिको सूरिमंत्रका संस्फुरण हुआ और इन्होंने उनको, अपने आदर्शको सिद्ध करनेके लिये, गुजरातकी ओर भ्रमण करनेका आग्रह किया ।
ये मूलमें कहांके निवासी, किस ज्ञातिके और किस तरह वर्द्धमान सूरिके शिष्य बने इसका वर्णन सबसे पहला हमें प्रभावकचरित-ही-में मिलता है । इसलिये यहां पर हम पहले उसीके अनुसार यह वर्णन आलेखित करते हैं ।
इस प्रबन्धके कथनानुसार, जिनेश्वर सूरि और उनके भ्राता बुद्धिसागरका जन्मस्थान मध्यदेश (और सोमतिलकके कथनानुसार उस देशकी प्रसिद्ध नगरी बनारस ) है । ये जातिके ब्राह्मण थे और इनके पिताका नाम कृष्ण था । इन भाइयोंका मूल नाम क्रमसे श्रीधर और श्रीपति था । ये दोनों भाई बडे बुद्धिमान् और प्रतिभाशाली थे । इन्होंने वेदविद्या विशद विशारदता प्राप्त की थी और स्मृति, इतिहास, पुराण आदि अन्यान्य शास्त्रोंमें भी पूर्ण प्रवीणता संपादन की थी । अपना विद्याध्ययन पूर्ण कर लेने पर, इन दोनों भाइयोंने देशान्तर देखनेकी इच्छासे अपने जन्मस्थानसे प्रयाण किया । उस समय मालव देशकी राजधानी धारानगरीकी सारे भारतवर्ष में बडी ख्याति थी। भारतीय विद्याओंका बडा उत्कट प्रेमी और उद्भट विद्वान् राजाधिराज भोजदेव वहांका अधिपति था । ये दोनों भाई फिरते फिरते धारा नगरी पहुंचे । वहां पर एक लक्ष्मीपति नामक बडा धनाढ्य एवं दानशील जैन गृहस्थ रहता था । वह परदेशीय विद्वानों और अतिथियोंको बडे आदरके साथ सदा अन्न-वस्त्रादिका दान किया करता था। श्रीधर और श्रीपति ये दोनों भाई उसके स्थान पर पहुंचे । उसने इनकी आकृति वगैरह देख कर, बडी भक्तिके साथ इनको भोजनादि कराया । ये उसके वहां इस तरह कुछ दिन निरंतर भोजनके लिये जाया करते थे और उसके मकान पर जो कुछ प्रवृत्ति होती रहती थी उसका निरीक्षण भी किया करते थे । उस सेठका व्यापार बडा विस्तृत था और उसके वहां रोज लाखोंका लेन-देन होता था। उस लेन-देनके हिसाबका लेखा, मकानके सामनेकी भींत पर लिखा रहता था* । उसको वारंवार देखनेसे इन दोनों भाइयोंको वह कंठस्थ जैसा हो गया । अकस्मात् दुर्दैवसे एक दिन वहां आग लग गई और वह मकान जल गया । अन्यान्य चीज वस्तुके साथ वह भीत भी, जिस पर दुकानका हिसाब लिखा रहता था, जल गई । सेठको इससे बडा दुःख हुआ। लेन-देनका हिसाब नष्ट हो जानेसे व्यावहारिक कामोंमें अनेक प्रकारको
*उस जमाने में, आजकी तरह कागजके बने हुए बही-खाते नहीं होते थे, इसलिये व्यापारी लोग अपने रोजाना लेन-देनका हिसाब, थोडा हुआ तो लकडीकी पट्टिका पर (जो स्लेटके स्थानमें काममें लाई जाती थी) और बहुत हुआ तो उसी कामके लिये तैयार की गई भींत पर, खडिया मिट्टीके पानीसे अथवा स्याहीसे लिख लिया जाता था । पीछेसे, सावकाश, उसे कपडेके टिप्पनों पर लिपिबद्ध कर लिया जाता था।
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