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जिनेश्वर सूरिके चरितका सार ।
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तजवीज सोची । सब जितने बडे बडे राजाके अधिकारी थे वे अपने अपने गुरुकी ओरसे आम, केले, द्राक्षा आदि फलोंसे भरे हुए थालोंमें कुछ मूल्यवान् गहने और वस्त्रादि रख कर उन्हें भेंटके रूपमें सजा कर राणी के पास ले गये । जैसे देवता के आगे पूजाका सामान रखा जाता है वैसे उस राणीके आगे जा कर उन्होंने वह सब रख दिया और अपना मनोगत भाव प्रकट किया । राणी इससे तुष्ट हो कर उनके हितमें कुछ करने की इच्छा प्रकट कर ही रही थी कि इतने ही में राजाका एक विश्वस्त कर्मचारी, जो दिल्लीकी तरफका रहने वाला था और जो जिनेश्वर सूरिका भक्तजन था, राजाका कोई विशिष्ट सन्देश ले कर वहां आ पहुंचा और उसने राणीको राजाका वह सन्देश दिया । राणी के सामने उक्त प्रकारसे भेंटके भरे हुए थालादि देख कर तथा उन अधिकारी जनोंको वहां उस प्रकार बैठे हुए जान कर, उसने समझ लिया कि जरूर यह कोई, हमारे देशसे आये हुए महात्माओंको नीकालनेका जाल रचा जा रहा है । मुझे भी इसमें कुछ प्रयत्न करना चाहिये और अपने देश के महात्माओंका पक्षपोषक बनना चाहिये । उसने जा कर राजासे निवेदन किया कि 'महाराजका सन्देश राणीको पहुंचा आया हूं'; और फिर साथमें वह बोला कि 'महाराज ! मैंने आज महाराणीके यहां बडा भारी कौतुक देखा ।' राजा - 'सो कैसा ?' पुरुष - 'महाराणी आज अर्हतकी मूर्ति बन गई है । जैसे अतकी मूर्तिके आगे पूजानिमित्त फल, आभूषण और वस्त्रोंसे भरे हुए थाल रखे जाते हैं वैसे ही आज राणीके आगे किया गया है' - इत्यादि । राजाने तुरन्त समझ लिया कि जिन न्यायवादी महात्माओं को मैंने गुरुरूपसे सत्कृत किया है, ये लोग अब भी उनका पीछा नहीं छोड़ रहे हैं । इससे राजाने उसी पुरुषको कहा कि 'तुम शीघ्र जा कर राणीको कह आओ कि महाराजने कहलाया है कि जो भी चीजें तुह्मारे सामने ला कर रखी गई हैं उनमेंसे यदि एक सुपारीमात्र भी तुमने ली है तो महाराज बहुत कुपित होंगे और उसका परिणाम अच्छा नहीं होगा ।' राणी यह सुन कर डर गई और उसने एकदमसे कह दिया कि जो जो आदमी ये चीजें लाये हैं वे सब अपने घरपर वापस ले जायँ । मुझे इनसे कोई प्रयोजन नहीं है । इस प्रकार यह उपाय भी उनका निष्फल हुआ ।
इसके बाद, फिर उन्होंने एक चौथा उपाय सोचा । वह था देवमन्दिरोंकी पूजाविधि न करनेरूप 'सत्याग्रह' का । उन चैत्यवासियोंने यह निर्णय किया कि यदि राजा इन देशान्तरीय साधुओंका बहुमान करता रहेगा तो हम सब इन देवमन्दिरोंको शून्य छोड कर देशान्तरोंमें चले जायेंगें । किसीने जा कर राजाको यह बात निवेदन की तो उसने कह दिया कि 'यदि उनको यहां रहना अच्छा न लगता हो तो खुशीसे चले जायें ।' राजाने उन देवमन्दिरों की पूजाके लिये दूसरे बटुक नियुक्त कर दिये और आज्ञा कर दी कि ये लोग सब देवताओंकी पूजा करते रहेंगे । पर देवमन्दिरके विना उन चैत्यवासियों का बहार रहना शक्य नहीं था । इससे कोई किसी बहाने और कोई किसी बहाने, वे सब फिर अपने अपने मन्दिरोंमें आ कर जम गये ।
वर्द्धमानसूरि इस प्रकार राजसम्मान प्राप्त कर फिर अपने शिष्यपरिवार के साथ देशमें सर्वत्र घूमने लगे । कोई कुछ उन्हें कह नहीं सकता था । बादमें उन्होंने अच्छे मुहूर्त में अपने पट्टपर जिनेश्वर सूरिकी स्थापना की । उनके दूसरे भ्राता बुद्धिसागरको भी आचार्य पदसे अलंकृत किया । उनकी बहिन जो कल्याणमति नामक थी, और वह भी साध्वी बनी हुई थी, उसको 'महत्तरा' का पद दिया गया ।
जिनेश्वर सूरि फिर अनेक स्थानोंमें विहार करते रहे और लोगोंको अपने आदर्शका उपदेश देते रहे ।
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