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जिनेश्वर सूरिके चरितकी साहित्यिक सामग्री।
२१ चरितके शब्दकलेवरको बढानेका प्रसंग लिया है। परंतु जिनपालका चरित-वर्णन बहुत ही सीधा सादा और सरल भाषामें लिखा हुआ हो कर उसमें प्रासंगिक अन्य अवतरणोंका बिल्कुल समावेश नहीं है । अतएव तथ्यकी दृष्टिसे यह वर्णन विशेष विश्वननीय प्रतीत होता है।
(३) जिनेश्वर सूरिके चरितका तीसरा साधन, प्रभावकचरित है, जिसकी रचना चन्द्रगच्छके आचार्य प्रभाचन्द्रने वि. सं. १३३४ में पूर्ण की है । प्रभाचन्द्रने अपना प्रबन्ध, जिनेश्वर सूरिके शिष्य अभयदेव सूरिको उद्दिष्ट करके लिखा है । अभयदेव सूरिने नवांग सूत्रों की टीकाएं बना कर आगम शास्त्रके अभ्यासियोंके लिये महान् उपकार किया है और उनका यह कार्य सार्वजनीन होनेसे सब गच्छवाले और सब पक्षवाले उसको बहुत ही महत्त्व देते थे और इसीलिये अभयदेव सबके श्रद्धाभाजन बने थे । अतः प्रभाचन्द्रने उनके इस विशिष्ट शासनप्रभावक कार्यको लक्ष्य कर उनकी अवदात-वर्णना करनेके लिये इस प्रबन्धकी रचना की। परंतु अभयदेव सूरिके चरितकी पूर्वभूमिका तो जिनेश्वर सूरि के ही चरितमें सम्मीलित है, अतः उनको इसमें इनका भी यथाप्रसंग चरित-वर्णन करना पड़ा है।
इसमें कोई शक नहीं कि प्रभाचन्द्र एक बडे समदर्शी, आग्रहशून्य, परिमितभाषी, इतिहासप्रिय, सत्यनिष्ठ और यथासाधन प्रमाणपुरःसर लिखने वाले प्रौढ प्रबन्धकार हैं । उन्होंने अपने इस सुन्दर प्रन्थमें जो कुछ भी जैन पूर्वाचार्योंका इतिहास संकलित किया है वह बड़े महत्त्वकी वस्तु है । इस ग्रन्थकी तुलना करने वाले केवल जैन साहित्य-ही-में नहीं अपि तु समुच्चय संस्कृत साहित्यमें भी एक-दो ही ग्रन्थ हैं। प्रभाचन्द्र ने अपने इस प्रबन्धमें, जिनेश्वर सूरिका अणहिलपुरमें चैत्यवासियोंके साथ होने वाले वाद-विवादका जो वर्णन दिया है वह, ऊपर वर्णित दोनों निबन्धोंके चरित-वर्णनके साथ कुछ थोडासा भेद रखता है । जिनेश्वर सूरिके दीक्षित होनेके पहलेका-उनकी पूर्वावस्थाके विषयका-कोई निर्देश ऊपरवाले दोनों चरित-निबन्धोंमें नहीं है । उसका उल्लेख सबसे पहले इसी प्रबन्ध मिलता है; इसलिये इस दृष्टिसे यह प्रबध और भी अधिक उपयुक्त साधनभूत है।
(४) इस साधन-संग्रहमें चौथा स्थान जो सोमतिलक सूरि रचित 'सम्यक्त्वसप्ततिका - वृत्ति'का है, वह रुद्रपल्लीय गच्छके संघतिलक सूरिके शिष्य सोमतिलक सूरिकी रचना है । वि. सं. १४२२ में इसकी रचना पूरी हुई है । इस वृत्तिमें 'वचनशुद्धि'का विषय-वर्णन करते हुए सोमतिलकने सुप्रसिद्ध 'तिलकमञ्जरी' नामक अप्रतिम जैन कथाप्रन्थके प्रणेता महाकवि धनपालका उदाहरण दिया है और उसकी सारी कथा वहाँ पर लिखी है। इसी कथामें धनपालके पिताका जिनेश्वर सूरिका मित्र होना तथा उसके भ्राता शोभनका जिनेश्वर सूरिका शिष्य होना बतला कर, उनकी कथा भी साथमें प्रथित कर दी है। परंतु यह सारी कथा असंबद्धप्राय हो कर सुनी-सुनाई किंवदन्तीके आधार पर लिखी गई माल्म देती है; इससे इसका कोई विशेष ऐतिहासिक मूल्य नहीं है । इसमें भी जिनेश्वरकी पूर्वावस्थाका कुछ पोडासा उल्लेख किया गया है जो उक्त प्रभावक-चरितके उल्लेखसे सर्वथा भिन्न है।
(५) पांचवां साधन, एक प्राकृत 'वृद्धाचार्यप्रबन्धावलि' है जो हमें पाटणके भण्डारमें उपलब्ध हुई है । इसके रचयिताका कोई नाम नहीं मिला । माल्म देता है जिनप्रभ सूरि (विविधतीर्थकल्प तथा विधिप्रपा आदि ग्रन्थोंके प्रणेता)के किसी शिष्यकी की हुई यह रचना है, क्यों कि इसमें जिनप्रभ सूरि एवं उनके गुरु जिनसिंह.सूरिका भी चरित-वर्णन किया हुआ है। इसमें संक्षेपमें वर्द्धमान सूरि, जिनेश्वर सूरि आदि आचार्योंका चरित-वर्णन है परंतु वह प्रायः इधर-उधरसे सुनी गई किवदन्तियोंके आधार
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