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कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । सूरिके मुख्य कार्यकलापका सविशेष ज्ञापक ऐसा एक और उद्धरण यहां देते हैं जो जिनदत्त सूरिका कथनखरूप है।
जिनदत्त सूरिके विषयमें कुछ विशेष परिचय देनेका यहां अवकाश नहीं है । बहुत संक्षेपमें, इनके कार्यका कुछ थोडासा परिचय ऊपर दे ही दिया गया है । ये भी जिनेश्वर सूरिके साक्षात् प्रशिष्योंमेंसे ही एक थे। इनके दीक्षागुरु धर्मदेव उपाध्याय थे जो जिनेश्वर सूरिके खहस्तदीक्षित अन्यान्य शिष्योंमेंसे थे। इनका मूल दीक्षानाम सोमचन्द्र था । हरिसिंहाचार्यने इनको सिद्धान्त ग्रन्थ पढाये थे । इनके उत्कट विद्यानुराग पर प्रसन्न हो कर देवभद्राचार्यने अपना वह प्रिय कटाखरण ( वरतना - एक प्रकारकी कलम जिससे लकडीकी पट्टिका पर खडियासे लिखा जाता है), जिससे उन्होंने अपने बडे बडे ४ ग्रन्थोंका लेखन किया था, इनको भेटके खरूपमें प्रदान किया था। ये बडे ज्ञानी, ध्यानी और उद्यत विहारी थे। जिनवल्लभ सूरिके स्वर्गवासके पश्चात् इनको, उनके उत्तराधिकारी पट्ट पर, देवभद्राचार्यने आचार्यके रूपमें स्थापित किया था ।
चैत्यवासके विरुद्ध जिनेश्वर सूरिने जिन विचारोंका प्रतिपादन किया था उनका सबसे अधिक विस्तार और प्रचार वास्तवमें जिनवल्लभ सूरिने किया था। उनके उपदिष्ट मार्गका इन्होंने बडी प्रखरताके साथ समर्थन किया और उसमें इन्होंने आने कई नये विचार और नये विधान भी सम्मीलित किये । जिनेश्वर सूरिने अपने जीवन और भ्रमण कालमें कोई निश्चित विधि-विधान वाली अपनी पक्षस्थापना नहीं की थी। प्रासंगिक परिस्थितिको लक्ष्य कर, जो जो विचार उनके मनमें उत्पन्न होते गये, उनका शास्त्रानुसार विचार कर वे तदनुरूप उपदेश देते रहे । इस विषयका न कोई उन्होंने नये साहित्यका ही निर्माण किया और न कोई नियमबद्ध ऐसा अपना नया विशिष्ट पक्ष ही संगठित किया । वे अपने उपदेशसे और अपने आचारसे तत्कालीन जैन यतिसमाजमें, एक नई परिस्थितिका, विशिष्ट आन्दोलन उत्पन्न कर गये । उनके इस आन्दोलित वातावरणके कारण, उनकी मृत्युके पश्चात् खल्पसमयमें हीप्रायः आधीशताब्दीके अन्तर्गत ही- जैन श्वेतांबर यतिवर्गमें, कितने ही सांप्रदायिक और धार्मिक विधि-विधानोंको ले कर, भिन्न भिन्न गच्छीय आचार्यों द्वारा, कई छोटे बडे गच्छ एवं पक्ष-विपक्षोंका प्रादुर्भाव हो गया । इन पक्षोंमें परस्पर अस्मिता और प्रतिस्पर्धाका जोर बढने लगा और ये एक दूसरेके मन्तव्योंका व्यवस्थित खण्डन - मण्डन करने में प्रवृत्त होने लगे । वाद-विवादका विषय केवल चैत्यवास
और वसतिवास तक ही सीमित नहीं रहा; परंतु मन्दिरोंकी प्रतिष्ठा, उपासना, पूजा आदिके विधिविधानोंके वारेमें तथा साधु-यतियोंके आहार-विहारके वारेमें, एवं गृहस्थोंके भी कुछ क्रियाकांडोंके वारेमें, भिन्न भिन्न प्रकारके कितने ही वाद-विवादात्मक विषय उत्पन्न होने लगे और उनको मुख्य करके पृथक् पृथक् गच्छानुयायियोंका परस्पर संघर्ष होने लगा।
इसी संघर्षके परिणाममें जिनवल्लभ सूरिको अपना एक नया 'विधिपक्ष' या 'विधिमार्ग' नामक विशिष्ट संघ स्थापित करना पड़ा जिसका विशेष पुष्टीकरण एवं दृढ संगठन इनके उत्तराधिकारी जिनदत्त सूरिने किया ।
जिनवल्लभ सूरि, मूलमें मारवाडके एक बडे मठाधीश चैत्यवासी गुरुके शिष्य थे। परंतु ये उनसे विरक्त हो कर, गुजरातमें अभयदेव सूरिके पास, शास्त्राध्ययन करनेके निमित्त, उनके अन्तेवासी हो कर रहे थे। ये बडे भारी प्रतिभाशाली विद्वान् , कवि, साहित्यज्ञ, ग्रन्थकार और ज्योतिःशास्त्र विशारद थे। इनके प्रखर पाण्डित्य और विशिष्ट वैशारद्यको देख कर, अभयदेव सूरि इनपर बडे प्रसन्न रहते थे और अपने मुख्य दीक्षित शिष्यों की अपेक्षा भी इन पर अधिक अनुराग रखते थे । अभयदेव सूरि चाहते थे कि अपने
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