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जिनेश्वर सूरिके जीवन चरितका साहित्य |
वादीरूपी हाथियों का मर्दन करनेके लिये मृगेन्द्र जैसे हैं । जिनदेवके कहे हुए शुद्ध सिद्धान्तका उपदेश करनेमें बडे प्रवीण हैं । इन्होंने, अतीव सुललित पदोंका जिसमें संचार है और श्लेषादि विविध अलंकारोंसे जो विभूषित है ऐसी प्रसन्न वाणीवाली और अतीव कोमल भाववाली 'लीलावती' नामक कथाकी मनोहर रचना की है, जो सब जनोंके मनको आनन्द दे रही है । इन जिनेश्वर सूरिका प्रताप बहुत ही उत्कट रूप से फैल रहा है 1
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इन्हीं जिनेश्वर सूरिके सहोदर बन्धु बुद्धिसागराचार्य हैं जो जिनप्रणीत शास्त्रोंके परमार्थका विस्तार करनेमें दत्तचित्त हैं । जिन्होंने अपने शरच्चन्द्र के समान उज्ज्वल यशसे सारे भुवनतलको भर दिया है । जिनके मुखविवर से पंचप्रन्थी ( व्याकरणशास्त्र ) रूप विशाल नदीका, अर्थप्रपूर्ण पानीसे भरा हुआ, वैसा प्रवाह नीकला है जो अपशब्दरूप वृक्षोंका उन्मूलन करनेमें बडा समर्थ है । कहनेकी आवश्यकता महीं कि जिनभद्राचार्यके ये वचन भी वैसे ही तथ्यपूर्ण हैं जैसे उपर्युक्त बुद्धिसागराचार्यके वचन हैं ।
जिनचन्द्रसूरिकृत उल्लेख ।
जिनेश्वर सूरिके पट्टधर शिष्य जिनचन्द्र सूरि हुए । अपने गुरुके स्वर्गवास के बाद ये ही उनके पट्टपर प्रतिष्ठित हुए और गणके प्रधान नेता बने । इन्होंने अपने बहुश्रुत एवं विख्यातकीर्ति ऐसे लघु-गुरुबन्धु अभयदेवाचार्यकी अभ्यर्थनाके वश हो कर, 'संवेगरंगशाला' नामक एक संवेग भावके प्रतिपादक, शान्तरसप्रपूर्ण एवं बृहत्परिमाण प्राकृत कथा - ग्रन्थकी रचना की, जिसकी समाप्ति वि. सं. ११२५ में हुई । इस प्रन्थकी प्रशस्तिमें इन्होंने भी अपने गुरुके विषयमें वैसी ही भूरिभूरि प्रशंसा से भरे हुए सारभूत वचन गुम्फित किये हैं जैसे उपर्युक्त दोनों आचार्योंने किये हैं । इनके ये वचन इस प्रकार हैं
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काणं संभूओ भयवं सिरिवद्धमाणमुणिवसभो । नि पडिमपसमलच्छीविच्छडाखंडभंडारो ॥ ववहारनिच्छ्यनय व्व दव्वभावत्थय व्व धम्मस्स । परमुन्नइजणगा तस्स य दो सिस्सा समुत्पन्ना ॥ पढमो सिरिरिजिणेसरो त्ति मूवि (?) जंमि उइयंमि । मेोत्थापहावहामए ( ? ) दूरं तेयस्तिचक्कस्स ॥ अज वि य जस्स हरहासहंसगोरगुणाण पब्भारं । सुमरंता भव्वा उव्वहंति रोमंचमंगेसु ॥
बीओ पुण विरइयनिउणपवरवागरणपमुहबहु सत्थो । नामेण बुद्धिसागरसूरि त्ति अहेसि जयपथडो ॥
अर्थात् - भगवान् महावीरकी शिष्यसन्ततिमें कालक्रमसे श्री वर्द्धमान सूरि उत्पन्न हुए, जो अनुपम ऐसी प्रशमभावरूप लक्ष्मीके महान् भंडार जैसे थे । इनके, धर्मके द्रव्यस्तव और भावस्तव जैसे तथा व्यवहार और निश्चय नयके खरूप समान, परोन्नतिकारक दो शिष्य हुए । इनमें पहले श्री जिनेश्वर सूरि हैं, जो जैनाकाशमें तेजखी सूर्यके समान उदित हुए और जिन्होंने अपने बुद्धिके प्रखर प्रकाशसे, प्रतिस्पर्द्धिरूप मेघों अधकारको दूर कर दिया । आज भी अर्थात् इस ग्रन्थके बननेके समयमें भी, भव्यजन इनके उज्वल गुणसमूहका स्मरण कर कर, रोमांचोद्गमका अनुभव कर रहे हैं। वर्द्धमान सूरिके दूसरे शिष्य जगप्रसिद्ध ऐसे बुद्धिसागर सूरि हुए जिन्होंने व्याकरण आदि बहुत शास्त्रोंका प्रणयन किया है ।
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+ संवेगरंगशाला प्रन्थकी यह प्रशस्ति हमको बडोदे वाले पं. श्रीलालचन्दजी भ० गान्धीने बडे परिश्रम पूर्वक प्राप्त करके मेजी है इसलिये हम इनके इस सौजन्मके प्रति अपना कृतज्ञभाव प्रकट करते हैं।
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