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कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । पास चला आवे उसे एक मात्र मोक्षमार्गका उपदेश करना है । इसके सिवा, यतिको न गृहस्थ जनोंका किसी प्रकारका संसर्ग ही कर्तव्य है और न किसी प्रकारका किसीको उपदेश ही वक्तव्य है । किसी स्थानमें, बहुत समय तक नियतवासी न बन कर सदैव परिभ्रमण करते रहना और घनी वसतिमें न रह कर, गांवके बहार जीर्ण-शीर्ण देवकुलोंके प्रांगणोंमें या पथिकाश्रयोंमें एकान्तनिवासी हो कर किसी-न-किसी तरहका सदैव तप करते रहना ही जैन यतिका शास्त्र विहित एक मात्र जीवनक्रम है।
जिनेश्वर सूरिका चैत्यवासियों के विरुद्ध आन्दोलन । इस प्रकारके शास्त्रोक्त यतिधर्मके आचार और चैत्यवासी यतिजनोंके उक्त व्यवहारमें, परस्पर बडा असामंजस्य देख कर, और श्रमण-भगवान् महावीर उपदिष्ट श्रमण धर्मकी इस प्रकार प्रचलित विप्लव दशासे उद्विग्न हो कर, जिनेश्वर सूरिने उसके प्रतीकारके निमित्त अपना एक सुविहित मार्गप्रचारक नया गण स्थापित किया और उन चैत्यवासी यतियोंके विरुद्ध एक प्रबल आन्दोलन शुरू किया। ___ यों तो प्रथम, इनके गुरु श्री वर्धमान सूरि खयं ही चैत्यवासी यतिजनोंके एक प्रमुख सूरि थे । पर जैन शास्त्रोंका विशेष अध्ययन करने पर मनमें कुछ विरक्त भाव उदित हो जानेसे और तत्कालीन जैन यतिसंप्रदायकी उक्त प्रकारकी आचारविषयक परिस्थितिकी शिथिलताका अनुभव कुछ अधिक उद्वेगजनक लगनेसे, उन्होंने उस अवस्थाका त्याग कर, विशिष्ट त्यागमय जीवनका अनुसरण करना स्वीकृत किया था। जिनेश्वर सूरिने अपने गुरुके इस वीकृत मार्ग पर चलना विशेष रूपसे निश्चित किया इतना ही नहीं परंतु उन्होंने उसे सारे संप्रदायव्यापी और देशव्यापी बनानेका भी संकल्प किया और उसके लिये आजीवन प्रबल पुरुषार्थ किया । इस प्रयत्नके उपयुक्त और आवश्यक ऐसे ज्ञानबल और चारित्रबल दोनों ही उनमें पर्याप्त प्रमाणमें विद्यमान थे, इसलिये उनको अपने ध्येयमें बहुत कुछ सफलता प्राप्त हुई और उसी अणहिल्ल पुरमें, जहां पर चैत्यवासियोंका सबसे अधिक प्रभाव और विशिष्ट समूह था, जा कर उन्होंने चैत्यवासके विरुद्ध अपना पक्ष और प्रतिष्ठान प्रस्थापित किया । चौलुक्य नृपति दुर्लभराजकी सभामें, चैत्यवासी पक्षके समर्थक अग्रणी सूराचार्य जैसे महाविद्वान् और प्रबल सत्ताशील आचार्यके साथ शास्त्रार्थ कर, उसमें विजय प्राप्त किया। इस प्रसंगसे जिनेश्वर सूरिकी केवल अणहिल्ल पुरमें ही नहीं, परंतु सारे गुजरातमें, और उसके आस-पासके मारवाड, मेवाड, मालवा, वागड, सिन्ध और दिल्ली तक के प्रदेशोंमें खूब ख्याति और प्रतिष्ठा बढी । जगह जगह सेंकडों ही श्रावक उनके भक्त और अनुयायी बन गये । इसके अतिरिक्त सेंकडों ही अजैन गृहस्थ भी उनके भक्त बन कर नये श्रावक बने । अनेक प्रभावशाली और प्रतिभाशील व्यक्तियोंने उनके पास यतिदीक्षा ले कर, उनके सुविहित शिष्य कहलानेका गौरव प्राप्त किया। उनकी शिष्यसन्तति बहुत बढी और वह अनेक शाखा-प्रशाखाओंमें फैली । उसमें बडे बडे विद्वान् , क्रियानिष्ठ और गुणगरिष्ठ आचार्य-उपाध्यायादि समर्थ साधु पुरुष हुए । नवाङ्गवृत्तिकार अभयदेव सूरि, संवेगरङ्गशालादि ग्रन्थोंके प्रणेता जिनचन्द्र सूरि, सुरसुन्दरी चरितके कर्ता धनेश्वर अपरनाम जिनभद्र सूरि, आदिनाथचरित्रादिके रचयिता वर्धमान सूरि, पार्श्वनाथचरित्र एवं महावीरचरित्रके कर्ता गुणचन्द्र गणी अपर नाम देवभद्र सूरि, संघपट्टकादिक अनेक प्रन्थोंके प्रणेता जिनवल्लभ सूरि- इत्यादि अनेकानेक बडे बडे धुरन्धर विद्वान और शास्त्रकार, जो उस समय उत्पन्न हुए और जिनकी साहित्यिक उपासनासे जैन वाङ्मय-भण्डार बहुत कुछ सुसमृद्ध और सुप्रतिष्ठित बना-इन्हीं जिनेश्वर सूरिके शिष्य-अशिष्योंमेंसे थे ।
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