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कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि ।
इनमेंसे B प्रतिके अन्त में वह अन्तकी 'ग्रन्थ-लेखक प्रशस्ति' भी नहीं मिली जो पृ. १८१ में मुद्रित है । कुछ अन्यान्य परिचित भण्डारोंमें भी इसकी कोई अन्य प्रति प्राप्त करनेका प्रयत्न किया गया परंतु सफलता नहीं मिली । ग्रन्थकी प्रेसकॉपी तैयार कर लेनेके बाद और ग्रन्थका कितनाक भाग छप जानेके पश्चात्, बम्बईके महावीर स्वामीके मन्दिरमें रक्षित खरतर गच्छीय ज्ञान भण्डारमेंसे, एक और प्रति मिली जो बिल्कुल नई ही लिखी हुई थी परंतु प्रत्यन्तर होनेसे उसका संशोधनमें हमें कुछ ठीक उपयोग हुआ ।
सन् १९४२-४३में जब हमने जेसलमेर के भण्डारोंका अवलोकन किया, तब वहां इस ग्रंथकी प्रतिकी खोज की। परंतु वहां इसकी कोई प्रति दृष्टिगोचर नहीं हुई । हां ताडपत्रवाले भण्डारमें कुछ ५-१० त्रुटित ताडपत्र इसके जरूर दिखाई दिये । इन पत्रोंकी अवस्था और लिपिके अवलोकनसे हमें यह अनुमान हुआ कि यह प्रति बहुत कुछ पुरानी होनी चाहिये - अर्थात् १२ वीं शताब्दीके उत्तर भाग में या १३ वीं के पूर्व भाग में लिखी हुई होनी चाहिये । सेंकडों ग्रन्थोंके हजारों त्रुटित ताडपत्रों में हमने इसके अन्तिम पत्र की प्राप्ति के लिये बहुत कुछ परिश्रम किया परन्तु वह सफल नहीं हुआ । पीछेसे, सन् १९४४ में, जब भावनगर जानेका प्रसंग आया, तब वहांके संघके भण्डारमें इस ग्रन्थकी एक ताडपत्रीय प्रि दृष्टिगोचर हुई । परन्तु इसमें भी लेखनकालका निर्देश नहीं मिला । अनुमानतः यह १४वीं शताब्दी के अन्त भागमें लिखी हुई होगी । इस प्रतिका दर्शनमात्र कर लेनेके उपरान्त और कोई उपयोग नहीं हो सका। हां, यह नोट अवश्य कर लिया गया कि इसके अन्तमें भी ग्रन्थकी वह प्रशस्ति लिखी हुई है। जो पाटणकी A संज्ञक प्रतिमें मिलती है ।
प्रतियोंके अशुद्धप्राय होनेसे ग्रन्थ के संशोधनमें बहुत कुछ श्रम और समय व्यतीत होना स्वाभाविक ही है । पाद-टिप्पणियों में जो पाठभेद सूचित किये गये हैं वे केवल वैसे ही पाठ हैं जो शब्द और अर्थकी दृष्टिसे शुद्ध हो कर कुछ विशेषत्व बतलाते हैं । बाकी अशुद्ध पाठ तो इनमें इतने हैं कि जिनका उद्धरण करनेसे प्रत्येक मुद्रित पृष्ठका पूरा आधा भाग भर जाय । ऐसे अशुद्ध पाठोंका उद्धरण करना हमने सर्वथा निरर्थक समझा और उनका कोई निर्देश नहीं किया ।
२. जिनेश्वर सूरिका समय और तत्कालीन परिस्थिति ।
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इ इस ग्रन्थके कर्ता, जैसा कि ग्रन्थगत आदि एवं अन्तके उल्लेखोंसे स्पष्टतया ज्ञात होता है श्री जिनेश्वर सूरि हैं । यों तो इस नामके सूरि जैन संप्रदायमें अनेक हो चुके हैं, पर इसके कर्त्ता वे ही जिनेश्वर सूरि हैं, जो सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं और जिनका स्थान जैन श्वेताम्बर -संप्रदाय में बहुत ही विशिष्ट महत्त्व रखता है ।
ये आचार्य श्री वर्द्धमान सूरिके शिष्य थे । विक्रम संवत् १९०८ के मार्गशीर्ष मास की कृष्ण पंचमीके दिन, इस ग्रन्थकी रचना उन्होंने समाप्त की और इसकी प्रथम प्रतिलिपि उन्हींके शिष्य श्री जिनभद्र नामक सूरिने अपने हाथसे तैयार की । यह इतना ऐतिह्य ज्ञातव्य, प्रस्तुत ग्रन्थकी अन्तिम प्रशस्तिसे स्पष्ट ज्ञात हो रहा है । इसी प्रशस्ति में यह भी सूचित किया गया है कि जिनेश्वर सूरिके प्रगुरु एवं श्री वर्द्धमान सूरिके गुरु श्री उद्योतन सूरि थे जो चन्द्र कुलके कोटिक गणकी वज्री शाखाके परिवार के थे ।
जिनेश्वर सूरि के विषय में, जिनदत्तसूरिकृत गणधर सार्द्धशतककी सुमतिगणीकृत बृहद्वृत्ति, जिनपालोपाध्याय लिखित खरतरगच्छबृहद्गुर्वावलिमें, प्रभाचन्द्राचार्यरचित प्रभावकचरित और
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