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जिनेश्वर सूरिका समय और तत्कालीन परिस्थिति।
विधिपक्ष अथवा खरतर गच्छका प्रादुर्भाव और गौरव । इन्हीं जिनेश्वर सूरिके एक प्रशिष्य आचार्य श्री जिनवल्लभ सूरि और उनके पट्टधर श्री जिनदत्त सूरि (वि. सं. ११६९-१२११) हुए जिन्होंने अपने प्रखर पाण्डित्य, प्रकृष्ट चारित्र और प्रचण्ड व्यक्तिस्वके प्रभावसे मारवाड, मेवाड, बागड, सिन्ध, दिल्लीमण्डल और गुजरातके प्रदेशमें हजारों अपने नये भक्त श्रावक बनाये-हजारों ही अजैनोंको उपदेश दे दे कर नूतन जैन बनाये । स्थान स्थान पर अपने पक्षके अनेकों नये जिनमन्दिर और जैन उपाश्रय तैयार करवाये । अपने पक्षका नाम इन्होंने विधि पक्ष ऐसा उद्घोषित किया और जितने भी नये जिनमन्दिर इनके उपदेशसे, इनके भक्त श्रावकोंने बनवाये उनका नाम विधि चैत्य ऐसा रक्खा गया । परंतु पीछेसे चाहे जिस कारणसे हो-इनके अनुगामी समुदायको खरतर पक्ष या खर तर गच्छ ऐसा नूतन नाम प्राप्त हुआ और तदनन्तर यह समुदाय इसी नामसे अत्यधिक प्रसिद्ध हुआ जो आज तक अविच्छिन्नरूपसे विद्यमान है।
इस खरतर गच्छमें उसके बाद. अनेक बडे बडे प्रभावशाली आचार्य, बडे बडे विद्यानिधि उपाध्याय, बडे बडे प्रतिभाशाली पण्डित मुनि और बडे बडे मांत्रिक, तांत्रिक, ज्योतिर्विद, वैद्यकविशारद आदि कर्मठ यतिजन हुए जिन्होंने अपने समाजकी उन्नति, प्रगति और प्रतिष्ठाके बढानेमें बड़ा भारी योग दिया । सामाजिक और सांप्रदायिक उत्कर्षकी प्रवृत्तिके सिवा, खरतर गच्छानुयायी विद्वानोंने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं देश्य भाषाके साहित्यको भी समृद्ध करनेमें असाधारण उद्यम किया और इसके फलखरूप आज हमें भाषा, साहित्य, इतिहास, दर्शन, ज्योतिष, वैद्यक आदि विविध विषयोंका निरूपण करने वाली छोटी-बडी सेंकडों-हजारों ग्रन्थकृतियां जैन भण्डारोंमें उपलब्ध हो रही हैं । खरतरगच्छीय विद्वानोंकी की हुई यह साहित्योपासना न केवल जैन धर्मकी ही दृष्टिसे महत्त्ववाली है, अपि तु समुच्चय भारतीय संस्कृतिके गौरवकी दृष्टिसे भी उतनी ही महत्ता रखती है।
साहित्योपासनाकी दृष्टिसे खरतर गच्छके विद्वान् यति-मुनि बडे उदारचेता मालूम देते हैं । इस विषयमें उनकी उपासनाका क्षेत्र केवल अपने धर्म या संप्रदायकी बाडसे बद्ध नहीं है । वे जैन और जैनेतर वाङ्मयका समान भावसे अध्ययन-अध्यापन करते रहे हैं । व्याकरण, काव्य, कोष, छन्द, अलंकार, नाटक, ज्योतिष, वैद्यक और दर्शनशास्त्र तकके अगणित अजैन ग्रन्थोंका उन्होंने बडे आदरसे आकलन किया है और इन विषयोंके अनेक अजैन ग्रन्थों पर उन्होंने अपनी पाण्डित्यपूर्ण टीकाएं आदि रच कर तत्तद् ग्रन्थों और विषयोंके अध्ययन कार्यमें बडा उपयुक्त साहित्य तैयार किया है । खरतर गच्छके गौरवको प्रदर्शित करने वाली ये सब बातें हम यहां पर बहुत ही संक्षेपमें, केवल सूत्ररूपसे, उल्लिखित कर रहे हैं । विशेष रूपसे लिखनेका यहां अवकाश नहीं है । इस ग्रन्थके साथ ही हम खरतर गच्छकी एक बहुत विस्तृत और बहुत पुरातन पट्टावलि-जिसका नाम हमने 'युगप्रधानाचार्य गुर्वावलि' ऐसा रखा है- प्रकट कर रहे हैं, जिसमें इन जिनेश्वर सूरिसे प्रारंभ कर, श्री जिनवल्लभ सूरिकी परम्पराके खरतर गच्छीय आचार्य श्री जिनपम सूरिके पट्टाभिषिक्त होनेके समय तकका- विक्रम संवत् १४०० के लगभगका-बारत विस्तृत और प्रायः विश्वस्त ऐसा ऐतिहासिक वर्णन दिया हुआ है । उसके अध्ययनसे पाठकोंको खरतर गच्छके तत्कालीन गौरवकी गाथाका अच्छा परिचय मिल सकेगा।
इस तरह पीछेसे बहुत प्रसिद्धि प्राप्त उक्त खरतर गच्छके अतिरिक्त, जिनेश्वर सूरिकी शिष्यपरम्परामेंसे अन्य मी कई-एक छोटे-बडे गण-गच्छ प्रचलित हुए और उनमें भी कई बडे बडे प्रसिद्ध विद्वान्,
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