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इससे विषय बिलकुल स्पष्ट होगया है कि नृपतुंग बल्लभ साराजाधिराज के दरबार में जहां मांसाशनको समर्थन करनेवाले अनेक विद्वान् थे, उनके सामने सांसुकी निष्फलताको सिद्ध कर दिया है। नृपतुंग अमोघवर्ष प्रथमका नाम है, और अमोघवर्षको ही वल्लभ, और महाराजाधिराजका उपाधि थी । नृपुतुंग भी उसकी उपाधि ही श्री* ।
इतिहासवेत्तावने इस अमोघवर्ष के राज्यरोहण के समयको शक सं. ७३६ (वि.सं. ८७१ - ई. स. ८१५ ) का लिखा है । गुणभद्रसूरिकृत उत्तरपुराण से ज्ञात होता है कि यह अमोघवर्ष ( प्रथम ) प्रसिद्ध जैनाचार्य जिनसेनका शिष्य था ।
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ख्यात श्रीनृपतुंगवल्लभ महाराजाधिराजस्थितः । मसभांतरे बहुविधप्रख्यात विद्वज्जने ॥ मांसाशिक रेंद्रनाखिलभिषग्विद्याविदामग्रतो । मांस निष्फलवां निरूप्य नितरां जैनेंद्र वैद्यस्थितम् ॥
यस्य प्रांशुनखांशुजाळ विसरद्धारांतराविर्भवस्पादाम्भोजरजः पिशंगमुकुटमत्यग्ररत्नद्युतिः ॥ संस्मर्ता स्वममोघवर्षनृपतिः पूतोहमद्येत्यलम् । स श्रीमानि सेन पूज्य भगत्पादो जगन्मंगलम् ॥
पावाभ्युदय काव्य की रचना श्री महर्षि जिनसेनने की थी । उसमें सर्गके अंतमें निम्नलिखित प्रकार उल्लेख मिलता है । इत्यमोत्रवर्षपरमेश्वरपरमगुरुश्री जिनसेनाचार्यविरचितं मेघदूतवेष्टिते पार्श्वाभ्युदये भगवत्केवल्यवर्णनं नाम चतुर्थः सर्गः इत्यादि ।
इससे स्पष्ट हुआ कि अमोघवर्षके गुरु जिनसेन थे । इसी बातका समर्थन Mediaeval Jainism नामक पुस्तकमें प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता प्रोफेसर सालेतोरने किया है । The next prominent Rastrakuta ruler who extended his patronage to Jainism was Amoghavarsa I, Nripatiunga, Atishayadhawala (A. D. 815-877). From Gunabhadra's Uttarpurana ( A. D. S9S ), we know that king Amoghvarsa I was the disciple of dinsena, the author of the Suuskrit work Adipurana ( A. D. 783) The Jaina leaning of king Amoghavarsa is further corroborated by Mahaviracharya the author of the Jain Mathematical work Ganitasarasangraha, who relates that, that monarch was follower of the Syadwad Doctrine. Mediaeval Jainism P. 38. इस से यह स्पष्ट है कि अमोघवर्ष श्री भगवज्जिनसेनाचार्य के शिष्य थे । अमोघ
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* इसकी आगे लिखी उपाधियां मिलती हैं - उपतुंग ( महाराज शर्व ) महाजराणु, अति ह्ययघयल, वीरनारायण, पृथिवीम, श्री पृथिवी वल्लभ महाराजाधिराज, भटार, परमभट्टारक भारत के प्राचीन राजवंश भी. ३५ ४७
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