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सुकरं तानेने पूज्यपाद मुनिगळ मुंपळ्द कल्याणकारकम वाहटसिद्धसारचरकाद्युत्कृष्टमं सद्गुणाधिकमं वर्जितमद्यमांसमधुवं कर्णाटदि लोकर--
क्षकमा चित्रमदागे चित्रकवि सोम पेल्दनि तळितथि ॥ .. इससे यह भी स्पष्ट है कि पूज्यपादक ग्रंथमें भी मद्य, मांस व मधुका प्रयोग बिल कुल नहीं किया गया है । चरकादियोंके द्वारा रचित ग्रंथसे वह उत्कृष्ट है । अनेक गुणोंसे परिपूर्ण है।
इस प्रकार अनेक जैन वैद्यक ग्रंथकार हुए हैं। जिन्होंने लोककल्याणके लिए अपने बहुमूल्य समय व श्रमको गमाकर निस्पृहतासे ग्रंथ निर्माणका कार्य किया । परंतु आज उन ग्रंथों का दर्शन भी हमें नहीं होता है । जो कुछ भी उपलब्ध हैं, उन के उद्धार की कोई चिंता हमारे उदार धनिकोंमें नहीं है । ६ ग्रंथ धीरे २ कीटभन्य बनते जा रहे हैं।
उग्रादित्याचार्यका समय उग्रादित्याचार्यकृत प्रकृत। कितना सरस व महत्वपूर्ण है । इसे बतलानेकी कोई आवश्यकता नहीं है । क्यों कि पाठक उसे अध्यनन कर स्वयं अनुभव करेंगे ही। परंतु सहसा यह जानने की उत्कंठा होती है कि ये किस समय हुए ? इस कल्याणकारककर्ता लोककल्याणकारक महात्माने किस शतमान में इस धरातल को अलंकृत किया था। हमें प्राप्त सामग्रियोंसे हम उस विषय पर यहांपर ऊहापोह करते हैं।
उग्रादित्यने प्रकृत ग्रंथमें पूज्यपाद, समंतभद्र, पात्रस्वामि, सिद्धसेन, दशरथगुरु, भेवनाद, सिंहसेन, इन आचार्योंके वैद्यक ग्रंथों का उल्लेख किया है । इससे इनसे उप्रादित्याचार्य आर्वाचीन हैं यह स्पष्ट है । ये सब आचार्य छटवीं शताब्दी के पहिले के होने चाहिए ऐसा अनुमान किया जाता है।
ग्रंथकारने ग्रंथके अंतमें एक वाक्य लिखा है । जिससे उनके समयका निर्णय करने में बहुत अनुकूलता होगई है । वे लिखते हैं कि---
- इत्यशेषविशेषविशिष्टदुष्टपिशिताशिवैद्यशानेषु मांसनिराकरणार्थमुग्रा. दित्याचाथै पतुंगवल्लभेंद्रसभायामुद्घोषितं प्रकरणम्” इससे स्पष्ट होता है कि
औषध में मांस की निरुपयोगिताको सिद्ध करनेकेलिए स्वयं आचार्यने श्रीनृपतुंगवल्लभेद्रकी सभामें इस प्रकरणका प्रतिपादन किया । इसका समर्थन इसके ऊपर ही आये हुए इस श्लोकसे होता है।
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