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कुमारसंभव
कपाल नेत्रान्तरलब्ध मार्गैर्ज्योतिः प्ररोहैरुदितै शिरस्तः । 3/49 उस समय उनके सिर और नेत्र से जो तेज निकल रहा था ।
4. प्रभा : - [प्र+भा+अङ्+टाप्] प्रकाश, दीप्ति, काँति, प्रकाश की किरण । तथा दुहित्रा सुतरां सवित्री फुरत्प्रभा मण्डलया चकासे । 1/24
वैसे ही तेजोमण्डल से भरे मुख वाली उस कन्या को गोद में पाकर मेना भी खिल उठीं।
विजित्य नेत्र प्रतिघातिनीं प्रभामन्य दृष्टिः सवितारमैक्षत। 5/20
चकाचौंध करने वाले सूर्य के प्रकाश को भी जीतकर, वे सूर्य की ओर एक-टक होकर देखती रहने लगीं ।
ते प्रभा मण्डलैव्यम द्योतयन्तस्तपोधनाः । 6/4
स्मरण करते ही अपने तेजोमण्डल से उजाला करते हुए वे सातों तपस्वी ।
अंशुक
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1. अंशुक :- [ अंशु+क- अंशवः सूत्राणि विषया यस्य ] कपड़ा, पोशाक । यत्रांशुकाक्षेप विलज्जितानां यदृच्छया किंपुरुषाङ्गनानाम् । 1/11 यहाँ की गुफाओं में किन्नरियाँ अपने प्रियतमों के साथ काम-क्रीड़ा करती रहती हैं, उस समय जब वे शरीर पर से वस्त्र हट जाने के कारण लजाने लगती हैं।
यत्र कल्पदुमैरेव बिलोल विटपांशुकैः । 6/41
कल्पवक्ष की चंचल शाखाएँ ही उस नगर की झंडिया थीं।
संतान काकीर्णमहापथं तच्चीनांशुकैः कल्पितकेतु मालम् । 7/3
बड़ी-बड़ी सड़कों पर कल्पवृक्ष के फूल बिछे हुए थे, दोनों ओर रेशमी झंडियाँ पाँतों में टंगी हुई थीं और द्वार-द्वार पर सोने के बन्दनवार बँधे हुए थे। व्याहृता प्रतिवचो न संदधे गन्तुमैच्छदवलम्बितांशुका । 8/2
ये इतना लजाती थीं कि शिवजी कुछ पूछते भी थे ये बोलती न थीं, यदि वे इनका आँचल थाम लेते तो, ये उठकर भागने लगती थीं।
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शूलिनः करतल द्वयेन सा संनिरुध्य नयने हृतांशुका । 8/7
जब कभी अकेले में शिवजी इनके कपड़े खींचकर इन्हें उघाड़ देते, ये अपनी दोनों हथेलियों से शिवजी के दोनों नेत्र बन्द कर लेतीं।