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अनेक न्याय ग्रन्थों के कर्ता मथुरानाथ । जगदीश और गदाधर दीधितिकार के परवर्ती काल में अति प्रसिद्ध हैं, पर उनका नाम मुझे उपाध्यायजो के ग्रन्थों में नहीं दिखाई दिया। इसके अनेक कारण हो सकते हैं । तर्क भाषा तथा तर्क और न्याय शब्दका अर्थ
उपाध्यायजी ने अपनी तर्क भाषा में जन दार्शनिकों द्वारा प्रतिपादित, अर्थ परीक्षा के तीन प्रधान साधनों का निरूपण किया है। प्राचीनकाल में प्रमाणों द्वारा प्रमेय की परीक्षा करनेवाले शास्त्रों को न्याय शब्द से कहा जाता था। महर्षि अक्षपाद के न्यायसूत्र प्रसिद्ध हैं। न्याय दर्शन के प्रथम सूत्र की व्याख्या में वात्स्यायन कहते हैं-प्रमाणेरर्थपरोक्षणं न्याः । प्रमाणों में हेतु. अर्थ परीक्षा का प्रधान उपाय है। मुख्यरूप से जिस शास्त्र में हेतुओं द्वारा अर्थ की परीक्षा की जाती थी, उसको न्याय कहा जाता था। ऋषि अक्षपाद के सूत्र न्याय सूत्र कहे जाते हैं । इनके अनुसार तत्त्व का प्रतिपान करनेवाले ग्रन्थों के नामों में न्याय शब्द का प्रयोग है। न्याय भाष्य, न्यायवार्तिक, न्यायमञ्जरी, आदि नाम इस प्रकार के हैं । बौद्धों के न्याय बिन्दु, न्याय मुख आदि और जैनों के न्यायावतार आदि ग्रन्थों में भी न्याय-शब्द है। हेतु से ही नहीं प्रत्यक्ष और शब्द के द्वारा भी अर्थपरीक्षा होती है। प्रत्यक्ष आदि प्रमाण हैं, इसलिये मुख्यरूप से हेतु पर आश्रित न्यायशास्त्र को प्राचीनकाल में प्रमाण-शब्द से भो कहते थे। जो विद्वान प्राचीनकाल में व्याकरण-मीमांसाऔर न्यायशास्त्र के विद्वान होते थे, वे ‘पदवाक्य-प्रमाण पारावारपारीण' बिरुद से अलङ्कृत होते थे। इस बिरुद का