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[ दार्शनिक विचारधारा का महत्त्व और ग्रंथकार को विद्वत्ता । ]
तार्किक शिरोमणि पूज्य उपाध्याय श्री यशोविजयजी गणिवरने संस्कृत- प्राकृत-गुजराती और मारवाडी भाषाओं में रचना की है। उनकी रचनाओं के विषय अधिक संख्या में दर्शनों के संबन्धी हैं । काव्य में भी उनकी रचना बहुत उत्कृष्ट है ।
उपाध्यायजी के आविर्भाव से पहले ही दार्शनिक विद्वानों में नव्य न्याय का आदर अत्यंत अधिक हो चुका था चौदहवीं शताब्दी में मिथिला के गंगेश ने 'न्यायतत्त्व चितामणि' नामक ग्रन्थ में नव्य न्याय का व्यवस्थित रूप से विस्तृत निरूपण किया । इसके अनन्तर प्रधानरूप से इस ग्रन्थ की व्याख्यानों के द्वारा नव्य न्याय का अद्भुत विस्तार हुआ । जब तक नव्य न्याय को शैली से दार्शनिक विषय का प्रतिपादन न हो तब तक उसका महत्त्व इस काल के पंडितो में प्रतिष्ठित नहीं होता था । उपाध्यायजो ने चौदहवीं शताब्दो से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक के नवीन नैयायिकों ने न्याय के जिन प्रधान तत्त्वों का प्रतिपादन किया था उनका जैन न्याय को अपेक्षा से विस्तृत निरूपण किया है । उपाध्यायजी के अतिरिक्त किसी अन्य विद्वान के द्वारा नव्य न्याय की शैली से जैन दार्शनिक तत्वों का विस्तृत विवेचन नहीं मिलता । उपाध्यायजी के जो दार्शनिक ग्रन्थ इस समय मिलते हैं, वे इस विषय का साक्षात्कार करा देते हैं ।
उनके ग्रन्थों में जिन अति प्रसिद्ध बंगाली नवीन नैयायिकों का उल्लेख है वे दो हैं। एक है-चिन्तामणि की प्रसिद्ध दीधिति व्याख्या के प्रणेता रघुनाथ शिरोमणि और दूसरे