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विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......31 शरीर, स्थान एवं वातावरण की शुद्धि हेतु प्रयुक्त मुद्राएँ 1. नाराच मुद्रा ___नाराच का शाब्दिक अर्थ है लोहे का बाण। संस्कृत व्युत्पत्ति के अनुसार "नरान् आचमति इति नाराचः” अर्थात जो मनुष्यों को पीड़ित करता है, क्लान्त करता है, आघात पहुँचाता है वह नाराच कहलाता है।
___ तीर के अनेक प्रकार हैं, किन्तु जिस तीर का सर्वांग लोहे का होता है उसे नाराच कहते हैं। इस मुद्रा के प्रयोजनभूत तत्त्व की दृष्टि से विचार किया जाए तो नाराच मुद्रा का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है। चूंकि तीर का अग्रभाग सीधा, नुकीला एवं चमकदार होता है। नाराच मुद्रा से शरीर में चमक उत्पन्न होती है अर्थात तदरूप भावधारा से शरीर की शुद्धि होती है। जिस प्रकार तीर का अग्रभाग लक्ष्य को साधता है और छूटता हुआ लक्ष्य का वेधन करता है उसी प्रकार प्रतीकात्मक दृष्टि से यह मुद्रा मन को एकाग्र करती है तथा चित्त की चंचलता को दूर कर चेतना को साधती है।
नाराच मुद्रा