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विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप... ...103 यह मुद्रा हृदय को ऊर्जा देती है तथा हृदय, फेफड़ा, छाती, गर्भाशय, कामुकता आदि से सम्बन्धित समस्याओं का समाधान करती है। इससे मासिक धर्म, श्वास, योनि आदि में उत्पन्न विकारों का शमन होता है।
यह मुद्रा बालकों में सत्संस्कारों का विकास करते हुए स्फूर्ति को प्रवाहित करती है तथा स्वर सुधारने एवं तापमान नियंत्रित रखने में सहयोगी बनती है।
साइनस के केन्द्र बिन्दु प्रभावित होने से इससे सर्दी जनित रोगों में लाभ होता है।
__ जल एवं वायु तत्त्व को संतुलित करते हुए यह रक्त संचरण एवं प्रजनन के कार्यों में सहायक बनती है। यह प्राण धारण एवं इसे सुनियोजित करने में भी सहायक है। यह मुद्रा मल-मूत्र, यकृत, नाड़ी तंत्र, हृदय आदि के कार्यों को भी नियमित करती है।
इस मुद्रा से जीवन की प्राण शक्ति में वृद्धि होती है। इससे कलात्मक उमंगों, रसानुभूति एवं कोमल संवेदनाओं का उत्पादन तथा उदारता, कर्तव्यपरायणता एवं 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के भाव उत्पन्न होते हैं।
• आध्यात्मिक दृष्टि से इस मुद्रा का प्रयोग साधक में अपरिग्रह की भावना को बढ़ाता है। रसना एवं स्पर्श इन्द्रिय पर नियंत्रण करता है। इस मुद्रा का अभ्यासी चित्तवृत्ति निरोध की दिशा में अग्रसर होता है। इससे स्वाधिष्ठान चक्र अधिक सक्रिय बनता है। 34. परशु मुद्रा (प्रथम)
परशु एक अस्त्र का नाम है। इसे कुठार भी कहते हैं। सामान्यत: कुठार लकड़ी या वृक्ष काटने के लिए प्रयोग में आता है।
. सांकेतिक रूप से कहा जा सकता है जिस प्रकार कुठार लकड़ी का मूल से छेदन करता है उसी तरह यह मुद्रा जड़मूल से बुराईयों का संहार करती है।
प्रस्तुत प्रकरण में संहार मुद्रा का तात्पर्य विरोधी तत्त्वों को दूर करने से है। प्रतिष्ठा जैसी शुभ क्रियाओं में अनिष्ट की संभावना बनी रहती है क्योंकि दुष्ट देव विघ्न संतोषी होते हैं, इसलिए कभी भी इष्ट कार्यों में बाधा डाल सकते हैं।
परशु मुद्रा दिखाकर अनिष्ट की आशंका को मूलत: समाप्त करने का संकल्प किया जाता है।